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________________ सम्बन्धसभाववाद: आदिग्रहणात्संयोगस्यापि संयोगिता स्यात् । न संयोगजन नात्संयोगिता। किन्तहि ? स्थापनादिति चेत् ; न स्थितिश्च प्रतिवणिता=ग्रन्थान्तरे प्रतिक्षिप्ता, स्थाप्यस्थापकयोर्जन्यजनकत्वाभावान्नान्या स्थितिरिति । "कार्यकारणभावोपि तयोरसहभावतः । प्रसिद्धयति कथं द्विष्ठोऽद्विष्ठे सम्बन्धता कथम् ।।७।। क्रमेण भाव एकत्र वर्तमानोन्यनिस्पृहः । तदभावेपि तद्भावात्सम्बन्धी नैकवृत्तिमान् ।।८।। होता है अभिप्राय यह है कि नैयायिक तो केवल द्रव्यों में हो संयोगीपना मानते है किन्तु यहां कर्म तथा गुण नामा पदार्थ में भी संयोगीपना सिद्ध हो रहा है । __ शंका-संयोग को उत्पन्न करने से संयोगीपना नहीं पाता अपितु स्थापना से पाता है, मतलब दो संयोगी पदार्थ द्वारा स्थापने योग्य संयोग लक्षण वाले पदार्थ की स्थिति को करने से संयोगीपना आता है ? समाधान-यह बात असिद्ध है, हमने आपके इस स्थिति स्थापनका ग्रन्थांतर में खण्डन कर दिया है, क्योंकि स्थाप्य और स्थापकमें आप जो जन्य जनक भाव बताते हैं सो जन्य जनक भावका तो निषेध कर चुके हैं, इसतरह स्थाप्य-स्थापक के प्रसिद्ध होने से स्थिति सिद्ध नहीं होती। अब यहां पर संबंध के विषयका जो "संबंध परोक्षा" नामा ग्रन्थ में विवरण है उसको प्रस्तुत करते हैं कार्य कारण में असहभाव होने से द्विष्ठ संबंध कैसे बने, अद्विष्ठ में संबंधपना किसप्रकार हो सकता है ? [ अर्थात् नहीं हो सकता ] ।।७।। पदार्थ तो क्रमसे अन्योन्य निस्पृह वर्त्तमान हैं, अत: कार्य या कारण के नहीं होनेपर भी इनमेंसे एक तो होता ही है, इसतरह संबंध सिद्ध नहीं होता, क्योंकि एक वृत्तिमान् ( एक में रहना ) को संबंध नहीं कहते ।।८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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