SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्बन्धसभाववाद: पश्यन्नेकमदृष्टस्य दर्शने तददर्शने । अपश्यत्कार्यमन्वेति विना व्याख्यातृभिर्जनः ।।१३।। दर्शनादर्शने मुक्त्वा कार्यबुद्ध रसम्भवात् । कार्यादिश्रुतिरप्यत्र लाघवार्थं निवेशिता ।।१४।। तद्भावाभावात्तत्कार्यगतिर्याप्यनुवर्ण्यते । संकेतविषयाख्या सा सास्नादेोगतिर्यथा ।।१५।। भावे भाविनि तद्भावो भाव एव च भाविता। प्रसिद्ध हेतुफलते प्रत्यक्षानुपलम्भतः ॥१६॥ एतावन्मात्रतत्त्वार्थाः कार्यकारणगोचराः। विकल्पा दर्शयन्त्यर्थान् मिथ्यार्था घटितानिव ।।१७।। किसी एक कारण को देखता हुआ पुरुष अवशेष जो अदृष्ट कार्य है उसका अन्वेषण व्याख्याता के बिना स्वयं करता है ।।१३।। कार्य कारणका दर्शन प्रदर्शन ही कार्य बुद्धि है इससे अन्य नहीं, कार्य कारण आदि शब्दों की योजना तो व्यवहार लाघव के लिये की गयी है ।।१४।। इस कारण के होने पर यह कार्य होता है इत्यादि जो कहा जाता है अथवा ऐसा ज्ञान होता है वह केवल संकेत विषयक है, जैसे कि किसी ने कहा कि यह गो है, क्योंकि सास्नादिमान है, सो सास्नायुक्त पदार्थ में संकेत मात्र ही तो है ।।१५।। पदार्थका भावी भवनरूप होना यही तो कार्य कारणता है, और यह हेतु तथा फल स्वरूप कारण कार्य भाव प्रत्यक्ष और अनुपलंभ से सिद्ध होता है ।।१६।। भावाभावकी उपाधि मात्र ही कार्य कारणपने का स्वरूप है, इस कार्य कारणपने को ग्रहण करने वाले विकल्प हुआ करते हैं वे असंबद्ध पदार्थों को भी संबद्ध के सदृश प्रतीत कराते हैं, इसीलिये तो विकल्प ज्ञान मिथ्या कहलाते हैं ।।१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy