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प्रमेयकमलमार्तण्डे समझाया है कि जैसे अनादि कालीन शीत स्पर्श उसके प्रतिबंधक उष्ण स्पर्श के बढ़ जाने से नष्ट होता है, वैसे ही कर्म के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शनादि कारणों के वृद्धिंगत होने पर कर्म मूल से नष्ट हो जाते हैं बीज अंकुर का दृष्टांत भी बढ़िया है । कर्म का आगामी आना रुकना संवर है, और वह गुप्ति, समिति आदि के द्वारा होता है। पहले संचित हुए कर्म, तपश्चर्या आदि के द्वारा निर्जीर्ण होते हैं जैसे जैसे सम्यग्दर्शनादि प्रकृष्ट होते हैं वैसे वैसे कर्म आवरण की हानि होती है । इस प्रकार कर्मों का पूर्णतया संवर तथा निर्जरा होना सिद्ध होता है ।
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