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________________ संवर निर्जरयोः सिद्धिः प्रावरण सिद्धि, कर्म पौद्गलिकत्वसिद्धि तथा संवर निर्जरा सिद्धि का सारांश होन शरीरादि ज्ञानावरण आदि कर्मों के पूर्णरूप से नाश होने पर या क्षयोपशम होने पर मुख्य प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है, "किन्तु बौद्ध प्रावरण को नहीं मानते उनके यहां श्रुतमयी और चितामयी भावना से ज्ञान प्रगट होता है न कि आवरण के हटने से ।" वे कहते हैं कि शरीर, राग आदि को आवरण माने तो उनके सद्भाव में भी ज्ञान होता है, अन्य कोई आवरण दिखाई नहीं देता, आचार्य ने उनको समझाया है कि शरीर आदि आवरण नहीं है कर्म आवरण है उस कर्म की अनुमान के द्वारा सिद्धि होती है आत्मा स्व और पर को जानना रूप स्वभाव वाला है ऐसे आत्मा की पदार्थ में आसक्ति हो रही है वह आत्मा से भिन्न किसी अन्य कारण से हुई है क्योंकि वह विशिष्ट प्रसक्ति है जैसे व्यसनी नीच पुरुष पर किसी कुलवंती स्त्री को आसक्ति मंत्र तंत्र आदि के हेतु से होती है, इस अनुमान से सामान्य कर्म सिद्ध हुआ, पुनः आवरण रूप विशिष्ट कर्म की सिद्धि के लिये दूसरा अनुमान प्रयुक्त होता है संसारी जीवों का ज्ञान सम्पूर्ण विषयों में प्रावरण युक्त है, क्योंकि सब विषयों में प्रवृत्त नहीं हो पाता, जो अपने विषय में प्रवृत्त नहीं होता उसका कारण अवश्य होना चाहिए, जो कारण है वही आवरण है । ज्ञान का आवरण कर्म न होकर अविद्या है क्योंकि मूर्तिक आवरण से प्रमूर्तिक ज्ञान पर आवरण नहीं आ सकता ऐसी शंका भी मदिरा के दृष्टान्त से दूर हो जाती है, जैसे मदिरा आदि मादक पदार्थ मूर्तिक होकर भी अमूर्ति आत्मादि को उन्मत्त करा देते हैं, वैसे कर्म हैं तथा यह कर्म अनादिकाल से प्रवाहरूप से चला आया है अतः उससे सम्बद्ध आत्मा सर्वथा अमूर्ति नहीं है । इस तरह पुरुषाद्वैतवादी आदि के अविद्या रूप आवरण का निरसन किया है । सांख्य प्रधान को ही प्रावरण मानते हैं और वह आवरण भी प्रधान पर आया हुआ मानते हैं, सो यह मान्यता प्रयुक्त है, प्रधान स्वरूप आवरण प्रधान पर आवरण डालता है तो प्रधान के ही बंध और मोक्ष होना सिद्ध होगा, अतः आत्मा को मानना व्यर्थ होता है । बंध तथा मोक्ष का फल ग्रात्मा भोगता है अतः वह व्यर्थ नहीं होता ऐसा कहना भी तर्क संगत नहीं है । इस प्रकार कर्म पौद्गलिक पदार्थ है यह सिद्ध हो जाता है, उस कर्म का प्रभाव संवर और निर्जरा से होता है, कोई कोई कर्म रूप आवरण का पूर्णतया नाश होना नहीं मानते, उनको शीत स्पर्श का दृष्टांत देकर Jain Education International ४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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