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प्रमेयकमलमार्तण्डे
ननु तत्प्रकर्षमात्रात्कर्मप्रक्षयमात्रमेव सिध्येन्न पुनः साकल्येन तत्प्रक्षय!, सम्यग्दर्शनादे: परमप्रकर्षसम्भवाभावात् ; इत्यप्यसङ्गतम् ; तत्प्रकर्षस्य क्वचिदात्मनि प्रसिद्धः। तथाहि-यस्य तारतम्यप्रकर्षस्तस्य क्वचित्परमप्रकर्षः यथोष्णस्पर्शस्य, तारतम्यप्रकर्षश्चासंयतसम्यग्दृष्यादौ सम्यग्दर्शनादेरिति । न च दुःखप्रकर्षेण व्यभिचारः; सप्तमनरकभूमौ नारकाणां तत्परमप्रकर्ष प्रसिद्धः सर्वार्थसिद्धौ देवानां सांसारिकसुखपरम प्रकर्षवत्, मिथ्यादृष्टिष्वनन्तानुबन्धि क्रोधादिपरमप्रकर्षवद्वा । नापि ज्ञानहा
जब इन सम्यग्दर्शनादिक गुणों का आत्मा में विकास होता है तब अनादि काल का प्रवाहरूप से चला आया कर्म संतान भी नष्ट होता है । जैसे जलादि का शीत स्पर्श अनादि संतान से चला आता है । किंतु उसके प्रतिपक्षी उष्ण स्पर्श के अत्यंत प्रकर्ष होने पर वह समूल नष्ट होता है । दूसरा उदाहरण बीज और अंकुर में अनादि से कार्य कारण भाव चलता है, किन्तु वह भी प्रतिपक्षी अग्नि के द्वारा नष्ट होता है बीज या अंकुर जल जाने पर निरवशेष खतम होता है, यह सब प्रतीति सिद्ध उदाहरण है, इनमें इन्कार नहीं कर सकते।
___शंका:-ठीक है, किंतु इन अनुमानों से सम्यक्त्व आदि के प्रकर्ष से कर्म का सामान्यतः क्षय होना तो सिद्ध होवेगा, किंतु पूर्णरूप से क्षय होना सिद्ध नहीं होता। क्योंकि सम्यक्त्व आदि का परम प्रकर्ष होना ही असंभव है ?
- समाधान:-यह कथन असंगत है, रत्नत्रय का परम प्रकर्ष किसी किसी आत्मा में होता ही है, इसी बात को सिद्ध करते हैं -जिस वस्तु का तरतम रूप से प्रकर्ष होता है उसका किसी में तो अवश्य ही परम प्रकर्ष होवेगा, जैसे उष्ण स्पर्श में तरतमता और प्रकर्ष दिखाई देता है । असंयतनामा चतुर्थ गुणस्थान वाले सम्यग्दृष्टि जीव को आदि लेकर अग्रिम गुणस्थानों में सम्यक्त्व आदि का प्रकर्ष बढ़ता हुआ पाया जाता है । कोई शंका करे कि इस कथनका दुःख के साथ व्यभिचार आता है ? तो इसको आचार्य समझाते हैं कि दुःख का परम प्रकर्ष सप्तम नरक में नारकी जीवों के है, जैसे सांसारिक सुखों का परम प्रकर्ष सर्वार्थसिद्धि वाले देवों के है अथवा अनंतानुबंधी क्रोधादि का प्रकर्ष मिथ्यादृष्टि में रहता है । इन सब हेतुओं का ज्ञान की हानिरूप प्रकर्ष के साथ व्यभिचार नहीं आता है, अर्थात् जो घटता बढ़ता है वह पूर्ण नष्ट भी होता है ऐसा एकांत कहेंगे तो ज्ञान हानि के साथ हेतु व्यभिचरित है, क्योंकि ज्ञान की परम हानि तो होती ही नहीं ? ऐसा कोई अल्पज्ञ कहे तो ठोक नहीं, ज्ञान की बात
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