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संवरनिर्जरयोः सिद्धिः
इत्यभिधानात् । आस्रवो हि मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगविकल्पात्पञ्चविधः, तस्मिन्सति कर्मणामास्रवणात् । स च संवरो गुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रविधीयते इत्यागमे विस्तरतः प्ररूपितं द्रष्टव्यम् । निर्जरासंवरयोश्च सम्यग्दर्शनाद्यात्मकत्वात्तत्प्रकर्षे कर्मणां सन्तानरूपतयाऽनादित्वेपि प्रक्षयः प्रसिध्यत्येव । न ह्यनादिसन्ततिरपि शीतस्पर्शो विपक्षस्योरणस्पर्शस्य प्रकर्षे निर्मूलतलं प्रलयमुपव्रजन्नोपलब्धः, कार्यकारणरूपतया बीजांकुरसन्तानो वाऽनादिः प्रतिपक्षभूतदहनेन निर्दग्धबीजो निर्दग्धाङ कुरो वा न प्रतीयते इति वक्त शक्यम् । रोकने वाला जो संवर है उसके गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय, और चारित्र इस प्रकार भेद हैं तथा और भी प्रभेद आगम में विस्तार से कहे हैं, इन सबका स्वरूप वहीं देखना चाहिये।
भावार्थ:-भली प्रकार से मन, वचन, काय को वश करना गुप्ति है, उसके मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति ऐसे तीन भेद हैं । गमन आदि क्रियाओं को जीवों की रक्षा करते हुए करना समिति है, इसके पांच भेद हैं, ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति, उत्सर्ग समिति । धर्म-जो जीवों को संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुँचा देता है उसे धर्म कहते हैं, उसके दश भेद हैं उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । वैराग्य बढ़ाने के लिये जिनका बार बार चितवन किया जाता है वे अनुप्रेक्षा कहलाती हैं, उनके बारह भेद आगम में कहे हैं, अनित्य अनुप्रेक्षा, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । मोक्षमार्ग में अडिग रहने के लिये बिना व्याकुल हुए जो कष्ट सहते हैं उसे परीषहजय कहते हैं । उसके बावीस भेद हैं, क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्न, अरति, स्त्री, चर्या, शय्या, निषद्या, आक्रोश, वध, याचना, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ और प्रदर्शन । जिन क्रियाओं से कर्म आता है ऐसी क्रियाओं से ज्ञानी विरक्त होते हैं उस ज्ञानी के आचरण को चारित्र कहते हैं, उसके पांच भेद हैं, सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात चारित्र । इन सबका पृथक् पृथक् लक्षण भी सिद्धांत ग्रन्थों में पाया जाता है, उनको वहीं से देखना चाहिये । ये गुप्ति आदिक तथा पूर्वकथित सम्यग्दर्शनादिक संवर निर्जरा के कारण हैं सम्यग्दर्शन के बिना गुप्ति आदिक वास्तविक नहीं कहलाते न उनसे संवरादि ही होते हैं।
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