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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे कुतः पुनः साकल्येन पूर्वोपात्तकर्मणां निर्जरा निश्चीयते इति चेदनुमानात्; तथा हि- साकल्येन क्वचिदात्मनि कर्माणि निर्जीर्यन्ते विपाकान्तत्वान्, यानि तु न निर्जीर्यन्ते न तानि विपाकान्तानि यथा कालादीनि विपाकान्तानि च कर्माणि तस्मात्साकल्येन क्वचिन्निर्जीर्यन्ते । न चेदमसिद्ध साधनम् ; तथाहि - विपाकान्तानि कर्माणि फलावसानत्वाद्व्रीह्यादिवत् । न चेदमप्यसिद्धम् ; तेषां नित्यत्वानुषङ्गात् न च नित्यानि कर्माणि नित्यं तत्फलानुभवनप्रसङ्गात् । भावि पुनः कर्म संवरान्निरुध्येत - "नपूर्व कर्मणामास्रवनिरोधः संवरः " [ तत्त्वार्थं सू० १] ४० सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप सुप्रसिद्ध ही है, यही कर्मों को नष्ट करने की सामग्री है | पुराना संचित कर्म चारित्र विशेष रूप निर्जरा से समाप्त होता है, वह निर्जरा दो प्रकार की हैं, उपक्रम निर्जरा और अनुपक्रम निर्जरा । उपक्रम या औपक्रमिक निर्जरा अनशन आदि बारह प्रकार की तपश्चर्या से होती है, तथा अनुपक्रम निर्जरा यथा समय कर्म का उदय आकर झड़ने रूप है वह सभी संसारी जीवों के होती है । शंका:-- पुराकृत कर्मों की पूर्ण रूपेण निर्जरा होती है यह किस प्रमाण से सिद्ध होगा ? समाधान: - - अनुमान प्रमाण से सिद्ध होवेगा, यहां उसी पंचावयव रूप अनुमान को उपस्थित करते हैं किसी विशेष ग्रात्मा में संपूर्ण रूप से कर्मों का नाश होता है, क्योंकि वे कर्म फलदान तक ही रहने वाले हैं, जो निर्जीव नहीं होते, वे फलदान तक ही नहीं रहते, जैसे काल आदि द्रव्य, कर्म अवश्य ही फलदान तक रहते हैं, अतः किसी प्रात्मा में संपूर्ण नष्ट होते हैं । इस अनुमान का विपाकान्तत्व - फल देने तक रहना रूप हेतु असिद्ध नहीं है, इसी को कहते हैं-कर्म फलदान तक ही ठहरने वाले हैं क्योंकि उसके बाद नष्ट होते हुये दिखाई देते हैं, जैसे चांवल गेहूँ आदि अनाज हैं, इस अनुमान का फलावसानत्व हेतु भी असिद्ध नहीं । यदि इसको प्रसिद्ध मानेंगे तो कर्म को नित्य मानना पड़ेगा, किन्तु कर्म नित्य नहीं है, यदि होते तो हमेशा ही उनका फल भोगना पड़ता । आगे आने वाले कर्मों का प्रभाव तो संवर करता है, नये कर्मों को रोकना संवर कहलाता है, ऐसा तत्वार्थ सूत्र में प्रतिपादन किया है । नया कर्म जिन कारणों से आता है उसको आस्रव कहते हैं उसके पांच भेद हैं, मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनके निमित्त से आत्मा में नये कर्म आते रहते हैं । प्रास्रव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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