SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवरनिर्जरयोः सिद्धिः ४३ निप्रकर्षणानेकान्तः; तस्यापि क्षायोपशमिकस्य हीयमानतया प्रकृष्यमाणस्य केवलिनि परमापकर्षप्रसिद्ध ।। क्षायिकस्य तु हानेवासम्भवात्कुतस्तत्प्रकर्षो यतोऽनेकान्तः । इत्थं वा साकल्येन कर्मप्रक्षये प्रयोगः कर्तव्य:-'यस्यातिशये यद्धान्यतिशयस्तस्यात्यन्तातिशयेऽन्यस्यात्यन्तहानि: यथाग्ने रत्यन्तातिशये शीतस्य, अस्ति च सम्यग्दर्शनादेरत्यन्तातिशयः क्वचिदात्मनि' इति । यद्वा, प्रावरणहानिः क्वचित्पुरुषविशेषे परमप्रकर्षप्राप्ता प्रकृष्यमाणत्वात् परिमाणवत् । न चात्रासिद्ध साधनम् ; तथाहि-प्रकृष्यमारणावरणहानिः प्रावरण हानित्वात् माणिक्याद्यावरणहानिवत् । तद्धानिपरमप्रकर्षे च ज्ञानस्य परमः प्रकर्षः सिद्धः। यद्धि प्रकाशात्मकं तत्स्वावरणहानिप्रकर्षे प्रकृष्यमाणं दृष्टम् यथा नयनप्रदोपादि, प्रकाशात्मकं च ज्ञानमिति । तदेवमावरणप्रसिद्धिवत्तदभावोप्यनवयवेन प्रमाणतः प्रसिद्धः । तत्प्रभवमेव चाशेषार्थगोचरं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् , ऐसी है कि वह यदि क्षयोपशम रूप है तब तो हानि का प्रकर्ष केवली के होता है, क्योंकि केवली में क्षयोपशम रूप ज्ञान नहीं है, क्षायिक ज्ञान में हानि नहीं है तो परम प्रकर्ष कहाँ से होगा ? जिससे कि हेतु को अनेकान्तिक कह सकते हैं ? कर्म का संपूर्ण क्षय होता है, इसका समर्थक और भी अनुमान है-जिसके अतिशय में जिसका हानि का अतिशय होता है, उस अतिशय के अत्यंत बढ़ जाने पर उस अन्य की अत्यंत हानि होती है । जैसे अग्नि के अत्यंत अतिशय में शीत की अत्यंत हानि होती है। किसी आत्मा में सम्यक्त्व आदि का अत्यंत अतिशय होता ही है । इस अनुमान से कर्म का पूर्ण क्षय होना सिद्ध होता है । तथा किसी पुरुष विशेष में प्रावरण की हानि चरम सीमा को प्राप्त होती है, क्योंकि वह प्रकृष्यमान है, जैसे परिमाण या माप प्रकृष्यमान होता है । यह प्रकृष्यमानत्वात् हेतु असिद्ध नहीं है, उसी को बताते हैं आवरण की हानि प्रकृष्यमान है क्योंकि वह आवरण की हानि है आवरण के हानि का परम प्रकर्ष सिद्ध है अतः ज्ञान का परम प्रकर्ष भी सिद्ध होता है। जो प्रकाशक होता है वह उसके आवरण हानि के बढ़ने पर बढ़ता ही है, जैसे दीपक या नेत्र संबंधी आवरण हानि है । ज्ञान भी दीपकादि की तरह प्रकाश शील है। इन उपयुक्त अनुमान प्रमाणों से कर्म का आवरण और अत्यंत प्रभाव भले प्रकार से सिद्ध होता है । इस आवरण के अत्यंताभाव से संपूर्ण त्रिकाल, त्रिकाल गोचर अशेष पदार्थों का ज्ञान होता है, ऐसा सिद्ध हुआ । ज्ञान में थोड़ा भी आवरण रहेगा तो वह अखिल वस्तुओं को जान नहीं सकता, जिस विषय में हो आवरण रहेगा उसी में इस ज्ञान की रुकावट हो जावेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy