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अर्थकारणतावादा
सर्वेण वेदनमन्यैस्तु धर्मेरवेदनमिति चेत्; तर्हि [ “ए ] कस्यार्थस्वभावस्य" [प्रमाणवा० ११४४ ] इत्यादिग्रन्थविरोधः । सत्त्वेनापि तदग्रहणे न सादृश्यं ग्रहणकारणमिति कथं सुगतस्योपचारेणापि बहिः प्रमेयग्रहणम् ?
कथं चैवंवादिनो भावस्योत्पद्यमानता प्रतीयेत-सा ह्य त्पद्यमानार्थसमसमयभाविना ज्ञानेन प्रतीयते, पूर्वकालभाविना, उत्तरकालभाविना वा ? न तावत्समसमयमाविना; तस्याऽतत्कार्यत्वात् । नापि पूर्वकालभाविना; तत्काले तस्याः सत्त्वाभावात् । न चासती प्रत्येतु शक्या; अकारणत्वात् ।
बौद्धः-सभी के सर्वज्ञ बन जानेका प्रसंग प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि सत्ता सामान्यरूप वस्तुअोंके एक धर्मको लेने पर भी अन्य अन्य नीलत्व पीतत्व आदि धर्म तो जाने नहीं ?
जैनः-ऐसा कहेंगे तो आपकेप्रमाणवात्तिक नामा प्रथके वाक्यके साथ विरोध होगा, क्योंकि उसमें लिखा है कि पदार्थके एक स्वभावको प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा लेने पर ऐसा कौनसा स्वभाव नहीं जाना जाता, अर्थात् जाना ही जाता है, इत्यादि । इस दोषको दूर करनेके लिये कहा जाय कि ज्ञान सतु सामान्यसे वस्तुओंको नहीं जानता, सो यह कथन और भी गलत होगा अर्थात् संपूर्ण वस्तुओंको जानने का कारण सादृश्य है सत् सामान्यसे एक वस्तुको जान लेने पर अशेष वस्तु ग्रहणमें आ जाती है ऐसा नहीं कह सकेंगे और ऐसी परिस्थिति में सुगत के उपचार मात्रसे भी बाह्य पदार्थों का जानना सिद्ध नहीं होता परमार्थकी बात तो दूर ही है।
पदार्थको ज्ञानका कारण मानने वाले वादीगण उस पदार्थकी उत्पद्यमानताको किसप्रकार जान सकेंगे यह भी समझमें नहीं आता, बताइये कि वस्तुका उत्पद्यमान धर्म उस वस्तुके समान काल में होने वाले ज्ञान द्वारा जाना जाता है कि पूर्ववर्ती ज्ञान द्वारा जाना जाता है अथवा उत्तर कालवर्ती ज्ञान द्वारा जाना जाता है ? समान कालवर्ती ज्ञान द्वारा जाना जायगा ऐसा कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि ज्ञानके समान काल में होनेवाला पदार्थ के उत्पद्यमान धर्मका कार्य ज्ञान नहीं है अर्थात् ज्ञान उससे उत्पन्न नहीं हया है। पूर्व कालवर्ती ज्ञान वस्तुकी उत्पद्यमानता को जानता है ऐसा दूसरा पक्ष भी गलत है, क्योंकि उस ज्ञानके समयमें उत्पद्यमानता है नहीं; असत् उत्पद्यमानता को जानना इसलिये शक्य नहीं है कि वह उत्पद्यमानता ज्ञानके प्रति कारण नहीं है । पूर्वकालवी ज्ञानके समय पदार्थका वह धर्म उत्पत्स्यमान कहलायेगा न कि उत्पद्यमान ।
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