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प्रमेयकमलमार्तण्डे
तदा खलूत्पत्स्यमानतार्थस्य न तूत्पद्यमानता। नाप्युत्तरकालभाविना; तदा विनष्टत्वात्तस्याः । न हि तदोत्पद्यमानतार्थस्य किं तूत्पन्नता ।
नित्येश्वरज्ञानपक्षे सिद्धमकारणस्याप्यर्थस्यानेन परिच्छेद्यत्वम् । तद्वदन्येनापि स्यात् । प्रथाकार्यत्वे तद्वन्नित्यत्वान्निखिलार्थग्राहित्वानुषङ्गः; न; चक्षुरादिकार्यत्वेनानित्यत्वात् । प्रतिनियतशक्तित्वाच्च प्रतिनियतार्थग्राहित्वम् । न खलु यकस्य शक्तिः सान्यस्यापि, अन्यथा सर्वस्य सर्व
उत्तरकालवर्ती ज्ञान द्वारा वह उत्पद्यमानता जानी जाती है ऐसा कहना भी ठीक नहीं उत्तरकालमें तो वह नष्ट हो चुकती है उस समय पदार्थ का वह धर्म उत्पद्यमान न होकर उत्पन्नरूप कहलायेगा ।
इसप्रकार बौद्धके पक्षमें ज्ञान पदार्थका कार्य है, पदार्थ ज्ञानमें कारण पड़ता है, इसप्रकार के कथनमें जो दोष आते हैं बतलाइये ।
अब नैयायिकको पुनः समझाते हैं कि आप पदार्थको ज्ञानका कारण मानते हैं सो इस मान्यतामें अव्याप्ति नामका दूषण आता है, आप ईश्वर तथा उसके ज्ञानको नित्य मानते हैं, जो नित्य होता है वह किसीसे उत्पन्न नहीं होता अतः ईश्वर का ज्ञान पदार्थसे उत्पन्न नहीं हो सकता, वह पदार्थसे उत्पन्न न होकर भी उसको जानता है, ऐसा आप मानते भी हैं फिर इसीप्रकार अन्य प्राणियोंके ज्ञान भी पदार्थसे उत्पन्न न ही पदार्थको जानने वाले हो जावे क्या बाधा है ?
शंकाः-अन्य ज्ञानोंको पदार्थका कार्य नहीं माने तो वे ज्ञान भी ईश्वरके ज्ञानके समान नित्य हो जानेसे संपूर्ण वस्तुओंको जानने वाले हो जायेंगे ?
समाधानः-ऐसा दोष जैनपर नहीं पा सकता, हम यद्यपि ज्ञानको पदार्थका कार्य नहीं मानते फिर भी उसमें अनित्यता सिद्ध होती है, क्योंकि हम लोग ज्ञानमें इन्द्रियोंको कारण मानते हैं, चक्षु आदि इन्द्रियोंका ज्ञान कार्य है। हम जैसे अल्पज्ञ जीवोंका ज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है, यह प्रतिनियत शक्तिवाला रहता है इसीकारणसे प्रतिनियत कतिपय पदार्थोंका ग्राहक होता है सब पदार्थों का नहीं। ऐसा भी नहीं होता कि किसी एक वस्तुमें जो शक्ति है वह अन्य वस्तुमें भी होवे, यदि एकको शक्ति अन्यमें होना स्वीकार करेंगे तो बड़ी भारी आपत्ति आयेगी-फिर तो महेश्वर के मान मन प्राणी सबके कर्ता धर्ता बन बैठेंगे । जिस प्रकार ईश्वर कार्यसमूह द्वारा
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