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________________ प्रमेयक मलमार्त्तण्डे क्षणिकत्वे चार्थस्य ज्ञानकालेऽसत्त्वात्कथं तेन ग्रहणम् ? तदाकारता चास्य प्राक्प्रत्युक्ता । सत्यां वा तस्या एव ग्रहणात्परमार्थतोर्थस्याग्रहणात्तदेवाऽसर्वज्ञत्वम् । न खलु चैत्रसदृशे मैत्रे दृष्टे परमार्थतश्चैत्रो दृष्टो भवत्यन्यत्रोपचारात् । साध्वी चोपचारेण सर्वज्ञत्वकल्पना सुगतस्य सर्वस्य तथाप्राप्तः, एकस्य कस्यचित्सतो वेदने तत्सदृशस्य सत्त्वेन सर्वस्य वेदनसम्भवात् । सत्वेन सर्वस्य १४ योगीका ज्ञान वर्त्तमान एवं भविष्यतके पदार्थको जानता ही नहीं ! तब तो योगीजन के सर्वज्ञपना मानना पड़ेगा ! जो किसीको इष्ट नहीं है । इस दूषरणको हटाने हेतु कोई प्रखर बुद्धिवाला समाधान करे कि योगीके अन्य ज्ञान भी होते हैं उनमें से किसी ज्ञान द्वारा वर्तमान आदि पदार्थोंको जानना हो जायगा ? सो यह बात भी असत है, वर्त्तमान एवं भविष्यतके पदार्थको अन्य ज्ञान जान भी लेवे किन्तु उससे कोई मतलब नहीं निकलता क्योंकि इस अन्य ज्ञानके समान कालमें होने वाले जो पदार्थ हैं उनका जानना तो रह जाता है ! अतः सर्वज्ञपना किस प्रकार सिद्ध करना यह प्रश्न तो विचारणीय ही रहता है । बहुत से एकांतवादी पदार्थोंको क्षणिक मानते हैं सो वे क्षणिक पदार्थ ज्ञानके समय में नष्ट हो जानेसे किसप्रकार ज्ञानद्वारा ग्रहण हो सकेंगे यह भी एक जटिल समस्या है। क्षणिकवादी बौद्ध पदार्थको ज्ञानका कारण मानते हैं उनको क्षणिक मानते हैं एवं उन पदार्थोंका ज्ञानमें आकार आना भी स्वीकार करते हैं, किन्तु यह सारी मान्यता सिद्ध नहीं होती, ज्ञानके तदाकारताको तो प्रथम भागके साकार ज्ञानवाद नामा प्रकरण में खण्डन कर श्राये हैं । यदि बौद्धके कदाग्रहसे क्षणभर के लिये उसे मान भी लेवे तो पूर्वोक्त दोष प्राता है कि सर्वज्ञता के अभावका प्रसंग आता है क्योंकि ज्ञान पदार्थके आकार का होकर मात्र उस आकार को जानता है तो उसने परमार्थतः पदार्थको जाना ही नहीं चैत्र और मैत्र दो समान प्रकृति वाले पुरुष हो और उनमें मात्र एक चैत्रको देखा तो मंत्र को देखा ऐसा परमार्थसे तो मान नहीं सकते, उपचार मात्र से कह देना दूसरी बात है कि चैत्र के समान ही मंत्र है अतः मैत्रके देखनेसे चैत्रको देखा हुआ समझो। इसप्रकार उपचार मात्र से सुगत में सर्वज्ञकी कल्पना करना परवादी बौद्धको इष्ट है तब तो सभी प्राणी सर्वज्ञ बन बैठेंगे ? एक किसी सतुरूप पदार्थको जान लेने से ही अन्य संपूर्ण पदार्थोंका जानना हो जायगा, क्योंकि सतु सामान्यसे संपूर्ण पदार्थ सदृश हैं ? । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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