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________________ ५२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे नित्यसम्बन्धवादिनोपि चानवस्थादोषस्तुल्य एव-अनभिव्यक्तसम्बन्धस्य हि शब्दस्याभिव्यक्तसम्बन्धेन शब्देन सम्बन्धाभिव्यक्तिः कर्तव्या, तस्याप्यन्येनाभिव्यक्तसम्बन्धेनेति । यदि पुनः कस्यचित्स्वत एव सम्बन्धाभिव्यक्तिः; अपरस्यापि सा तथैवास्तीति संकेतक्रिया व्यर्था । शब्दविभागाभ्युपगमे चालं सम्बन्धस्य नित्यत्वकल्पनया । कल्पने चाऽगृहीतसंकेतस्याप्यतोऽर्थप्रतिपत्तिः स्यात् । संकेतस्तस्य व्यंजकः; इत्यप्ययुक्तम्; नित्यस्य व्यंगयत्वायोगात् । नित्यं हि वस्तु यदि व्यक्त व्यक्तमेव, अथाव्यक्तमप्यव्यक्तमेव, अभिन्नस्वभावत्वात्तस्य । शब्दाभिव्यक्तिपक्षनिक्षिप्तदोषानुषंगश्चात्रापि तुल्य एव । जिसकी अभिव्यक्ति हो चुकी है ऐसे शब्द के द्वारा सम्बन्ध की अभिव्यक्ति करनी होगी और उस पूर्व शब्द का भी किसी अन्य अभिव्यक्त सम्बन्ध वाले शब्द द्वारा संबंधाभिव्यक्त करना होगा। इस अनवस्था को दूर करने के लिये किसी एक शब्द की संबंधाभिव्यक्ति स्वतः ही होती है ऐसा मानते हैं तो दूसरे शब्द की सम्बन्धाभिव्यक्ति भी स्वतः हो सकती है इसलिये फिर उसमें संकेत करना व्यर्थ ही हो जाता है अर्थात् शब्दार्थ का सम्बन्ध स्वतः ही अभिव्यक्त होता है तो उसके लिये वृद्ध पुरुषादि के द्वारा "यह घट है" इत्यादि रूप से बार बार संकेत क्यों किया जाता है ? इस संकेत क्रिया से ही स्पष्ट होता है कि शब्दार्थ सम्बन्ध स्वतः अभिव्यक्त नहीं होता। यदि शब्दों में विभाग स्वीकार किया जाय कि "अयम्' इत्यादि शब्द अभिव्यक्त सम्बन्ध वाला है और “घटः” इत्यादि शब्द अनभिव्यक्त सम्बन्ध वाला है तो फिर सम्बन्ध को नित्य मानने की कल्पना ही व्यर्थ है। उस सम्बन्ध को. यदि नित्य मानने का हटाग्रह हो तो संकेत ग्रहण के बिना भी शब्द से अर्थकी प्रतीति होती है ऐसा मीमांसक को स्वीकार करना होगा। मीमांसक-नित्य शब्द के सम्बन्ध को संकेत द्वारा व्यक्त किया जाता है अर्थात् संकेत उसका व्यंजक माना गया है ? जैन-यह कथन अयुक्त है, नित्य वस्तु व्यक्त करने योग्य नहीं होती, क्योंकि नित्य वस्तु यदि व्यक्त है तो सदा व्यक्त ही रहेगी और अव्यक्त है तो सदा अव्यक्त ही रहेगी, इसका भी कारण यह है कि नित्य वस्तु सदा एक अभिन्न स्वभाववाली होती है । तथा संकेत द्वारा सम्बन्ध की अभिव्यक्ति मानने के इस पक्ष में पहले के शब्दाभिव्यक्तिके पक्ष में दिये गये दूषण भी समान रूप से प्राप्त होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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