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________________ शब्द सम्बन्धविचारः " नित्याः शब्दार्थ सम्बन्वास्तत्राम्नाता महर्षिभिः । सूत्राणां सानुतन्त्राणां भाष्याणां च प्रणेतृभिः ॥ " [ वाक्यपदी० १।२३ ] इति; परिणाम विशिष्टस्यार्थस्य शब्दस्य तदाश्रितसम्बन्धस्य चैकान्ततो नित्यत्वासम्भवात् । सर्वथा नित्यस्य वस्तुनः क्रमयौगपद्याभ्यामर्थं क्रियासम्भवतोऽसत्त्वं चाश्वविषारणवत् । अनवस्थादूषणं चायुक्तमेव; ‘ग्रयम्' इत्यादेः शब्दस्यानादिपरम्परातोऽर्थमात्रे प्रसिद्धसम्बन्धत्वात् तेनावगतसम्बन्धस्य घटादिशब्दस्य संकेत करणात् । ५२७ होती है । व्यक्ति प्रनित्य ही है अतः उसके प्राश्रित रहने वाला उक्त सम्बन्ध भी अनित्य सिद्ध होता है जैसे कि भित्ति के अनित्य होने से तदाश्रित चित्र भी अनित्य होता है । इस प्रकार शब्दार्थ सम्बन्ध अनित्य है ऐसा निश्चय हुआ । इसलिये परवादी का निम्न कथन असत् होता है कि - महर्षियों ने शब्द और अर्थों के सम्बन्ध नित्यरूप स्वीकार किये हैं तथा सूत्र तंत्र एवं भाष्यों का प्रणयन करने वाले पुरुषों ने भी शब्दार्थ सम्बन्ध को नित्य माना है ॥ १॥ तथा सदृश परिणाम से विशिष्ट ऐसा अर्थ और शब्द के एवं उसके प्राश्रित रहने वाले सम्बन्ध के सर्वथा नित्यपना होना असंभव ही । क्योंकि सर्वथा नित्य वस्तु में क्रम से अथवा युगपत् प्रर्थक्रिया का होना शक्य है और अर्थक्रिया के प्रभाव में उस वस्तु का ग्रसत्त्व ही हो जाता है, जैसे अश्वविषाण में अर्थक्रिया न होने से उसका असत्त्व है । शब्दार्थ सम्बन्ध को अनित्य माने तो अनवस्था दोष प्राता है ऐसा मीमांसक का कहना तो अयुक्त ही है, क्योंकि “प्रयम्" यह इत्यादि शब्दका अर्थमात्र में सम्बन्ध अनादि प्रवाह से चला ग्रा रहा है, उस प्रसिद्ध सम्बन्ध द्वारा जिसका सम्बन्ध ज्ञात हुआ है ऐसे घट आदि शब्द में संकेत किया जाता है । अतः अनवस्था नहीं होती । Jain Education International तथा शब्दार्थ में नित्य सम्बन्ध को स्वीकार करने वाले प्राप मीमांसकादि प्रवादी के यहां भी उक्त अनवस्था दोष समान रूप से संभावित है, कैसे सो बताते हैंशब्द को नित्य मानते हुए भी एवं शब्दार्थ सम्बन्ध को नित्य मानते हुए आपने उसके अभिव्यक्त और ग्रनभिव्यक्त भेद किये हैं अतः अनभिव्यक्त सम्बन्ध वाले शब्द का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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