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________________ ५२६ प्रमेयकमलमार्तण्डे न चानित्यत्वेऽस्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं न दृष्टम्; प्रत्यक्षविरोधात् । एवं शब्दार्थसम्बन्धेप्येतद्वाच्यम्स हि न तावदनाश्रितः; नभोवदनाश्रितस्य सम्बन्धत्वाऽसम्भवात् । आश्रितश्चेत्कि तदाश्रयो नित्यः, अनित्यो वा ? नित्यश्चेत्; कोयं नित्यत्वेनाभिप्रेतस्तदाश्रयो नाम ? जातिः, व्यक्तिर्वा ? न तावज्जातिः; तस्याः शब्दार्थत्वे प्रवृत्याद्यभावप्रतिपादनात्, निराकरिष्यमाणत्वाच्च । व्यक्तेस्तु तदाश्रयत्वे कथं नित्यत्वमनभ्युपगमात्तथाप्रतीत्यभावाच्च । अनित्यत्वे च तदाश्रयत्वस्य सिद्ध तद्वयपाये सम्बन्धस्यानित्यत्वं भित्तिव्यपाये चित्रवत् । ततोऽयुक्तमुक्तम् अनित्य है उसी प्रकार शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य होते हुए भी उसके द्वारा अर्थ बोध होता है । हस्त संज्ञा ( हाथ का इशारा ) आदि का अपने अर्थ के साथ नित्य सम्बन्ध तो हो नहीं सकता क्योंकि स्वयं हस्तादि ही अनित्य हैं तो उनके आश्रय से होने वाला सम्बन्ध नित्य रूप किस प्रकार हो सकता है ? भित्ति के नष्ट होने पर उसके आश्रित रहने वाला चित्र नष्ट नहीं होता ऐसा कहना तो अशक्य ही है । अभिप्राय यह है कि स्वयं हस्त संज्ञादि अनित्य है अतः उसका अर्थ सम्बन्ध भी नष्ट होने वाला है जैसे कि भित्ति नष्ट होती है तो उसका चित्र भी नष्ट होता है। हस्त संज्ञा आदि अनित्य होने पर भी उससे अर्थ बोध नहीं होता हो सो ऐसी बात भी नहीं है क्योंकि ऐसा कहना प्रत्यक्ष से विरुद्ध पड़ता है-हम प्रत्यक्ष से देखते हैं हस्तादि के इशारे अनित्य रहते हैं तो भी उनसे अर्थ की प्रतिपत्ति होती है। इसी हस्त संज्ञाका न्याय शब्द और अर्थ के सम्बन्ध में लगाना चाहिए, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनाश्रित तो हो नहीं सकता क्योंकि आकाश के समान अनाश्रित वस्तुका सम्बन्ध होना असंभव है । अब यदि यह शब्दार्थ सम्बन्ध आश्रित है तो प्रश्न होगा कि उसका आश्रय नित्य है या अनित्य है ? शब्दार्थ सम्बन्ध का प्राश्रय नित्य है ऐसा कहे तो नित्यरूप से अभिप्रेत ऐसा यह शब्दार्थ सम्बन्ध का आश्रय कौन हो सकता है जाति ( सामान्य ) या व्यक्ति ? ( विशेष ) वह आश्रय जातिरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि शब्द और अर्थ में जाति की प्रवृत्ति आदि नहीं होती ऐसा पहले सिद्ध हो चुका है तथा आगे चौथे परिच्छेद में ( तृतीय भाग में ) इस जाति अर्थात् सामान्य का निराकरण भी करने वाले हैं। शब्दार्थ के सम्बन्ध का आश्रय व्यक्ति है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो उस सम्बन्ध को नित्यरूप किस प्रकार कह सकते हैं ? क्योंकि आपने व्यक्ति को ( विशेष को) नित्य माना ही नहीं और न नित्यरूप से उसकी प्रतीति ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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