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________________ शब्दसम्बन्धविचारः ५२६ किंच, संकेतः पुरुषाश्रयः स चातीन्द्रियार्थज्ञान विकलतयान्यथापि वेदे संकेतं कुर्यादिति कथं न मिथ्यात्वलक्षणमस्याप्रामाण्यम् ? किंच, सौ नित्यसम्बन्धवशादेकार्थ नियतः, अनेकार्थ नियतो वा स्यात् ? एकार्थनियतश्चेत्कि - मेकदेशेन सर्वात्मना वा ? सर्वात्मनैकार्थनियमे प्रर्थान्तरे वेदात्प्रतिपत्तिर्न स्यात्, ततश्चास्याज्ञानलक्षणमप्रामाण्यम् । एकदेशेन चेत्; स किमेकदेशोऽभिमतैकार्थ नियतः, अनभिमतैकार्थनियतो वा ? अनभिमतैकार्थ नियतश्चेत्; कथं न मिथ्यात्वलक्षणमप्रामाण्यम् ? अभिमतैकार्थनियतश्चेत्कि पुरुषात्, स्वभावाद्वा ? प्रथमपक्षे अपौरुषेयत्वसमर्थन प्रयासो व्यर्थः । पुरुषो हि रागाद्यन्धत्वात्प्रतिक्षिप्यते, किंच, संकेत पुरुष के श्राश्रित होता है और पुरुष अतीन्द्रिय ज्ञान से रहित होते हैं अतः ऐसे पुरुष द्वारा वेद में स्थित शब्दोंका विपरीत अर्थ में भी संकेत किया जाना संभावित होने से इस वेदवाक्य में मिथ्यापन रूप अप्रामाण्य कैसे नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा । तथा यह संकेत नित्य सम्बन्ध के वश से एक अर्थ में नियत है अथवा अनेक अर्थों में नियत है ? एक अर्थ में ही नियत है ऐसा कहे तो एक देश से नियत है अथवा सर्वात्मना - सर्वस्वरूप से नियत है ऐसी आशंका होती है ? यदि एक अर्थ में सर्व स्वरूप से संकेत का होना स्वीकार करते हैं तो वेद से अन्य अर्थ में प्रतीति नहीं हो सकेगी और इस तरह प्रथतर में इस वेद को अज्ञानरूप अप्रामाणिक ही माना जायगा । नियत एक अर्थ में एक देश से संकेत होता है ऐसा द्वितीय विकल्प माने तो वह एक देश से होने वाला संकेत भी अभिमत एक अर्थ नियत है ( अर्थात् अपने को इष्ट ऐसे एक अर्थ में नियत है ) अथवा अनभिमत ( अनिष्ट ) एकार्थ नियत है ? यदि अभिमत एकार्थ नियत है ऐसा मानेंगे तो वेद में मिथ्यापना रूप अप्रामाण्य का प्रसंग प्राप्त होता है अर्थात् स्वयं मीमांसक को अनिष्ट ऐसे अर्थ में एकदेशरूप संकेत होने से वेद में विपर्यासरूप अप्रमाणता सिद्ध होती है । क्योंकि अनभिमत एकार्थ में संकेत किया जाता है ऐसा मान लिया। दूसरा विकल्प - संकेत अभिमत एकार्थ नियत होता है ऐसा माने तो वह भी किस कारण से होता है पुरुष से होता है अथवा स्वभाव से होता है ? पुरुष से होता है ऐसा कहो तो वेद को अपौरुषेय सिद्ध करने का प्रयास व्यर्थ है क्योंकि मीमांसक सभी पुरुषों का सर्वदा राग द्वेषादि दोषयुक्त मानकर उनका निराकरण करते हैं । यदि रागादिमान पुरुष से वेद के एकदेश से होने वाला अर्थ का नियम जाना जाता है तो वेद को अपौरुषेय मानने से क्या प्रयोजन सधता है ? कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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