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________________ ५१८ प्रमेयकमलमार्तण्डे न चावान्त रवानां नानात्वस्यास्ति कारणम् । न चैकस्यैव सर्वासु गमनं दिक्षु युज्यते ॥६॥" __ [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १००-११२ ] इत्यादि । तद्वयञ्जकवाय्वागमनेपि समानम् । शक्यते हि शब्दस्थाने वायु पठित्वा 'वायोरागमनं तावददृष्टं परिकल्पितम्' इत्याद्य भिधातुम् । ___किंच, अष्टकल्पनागौरवदोषो भवत्पक्ष एवानुषज्यते; तथाहि-शब्दस्य पूर्वापरकोटयोः सर्वत्र च देशेऽनुपलभ्यमानस्य सत्त्वम्, तस्य चावारकाः स्तिमिता वायवः प्रमाणतोऽनुपलभ्यमानाः कल्पनीया।, ढेले के समान बिखर जायेंगे। एक कोई विवक्षित शब्द कर्णप्रदेश में प्रविष्ट होगा तब वह अन्य को सुनायी नहीं देना चाहिये ? क्योंकि वह तो उतना ही अव्यापक था ।।५।। आते हुए शब्दों से अवांतर शब्द हो जाय ऐसा एक को नानारूप करने का कोई निमित्त भी नहीं दिखायी देता। तथा तालु आदि से निर्मित एक शब्द सब दिशाओं में एक साथ गमन भी किस प्रकार कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता ।।६।। इत्यादि । सो यह मीमांसक का कथन उनके व्यंजक वायु के आगमन के विषय में भी समानरूप से घटित होता है । शब्द के विषय में जितने भर भी प्रश्न थे उनमें शब्द के स्थान पर वायु को रखकर हम जैन कह सकते हैं कि व्यंजक वायु का प्रागमन मानना अदृष्ट परिकल्पित मात्र है, जब वायु स्पर्शयुक्त है तो वह स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा क्यों नहीं ग्रहण होती ? अदृश्यभूत वायुका रचना क्रम भी किस प्रकार होवे ? इत्यादि । दूसरी बात यह है कि-अदृष्ट की कल्पना करना रूप दोष तो आप मीमांसक के पक्ष में ही आता है, कैसे सो बताते हैं - शब्द की पूर्वापरकोटि अर्थात् आदि अंत दिखता है तो भी उसे नहीं मानना और अदृष्ट नहीं देखे ऐसे नित्यत्व की कल्पना करना, सर्वत्र देश में व्यापक रूप उपलब्ध नहीं होने पर भी व्यापक मानना, शब्द का प्रावरण करने वाली स्तिमित वायु किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं है तो भी उसकी अदृष्ट कल्पना करते रहना, स्तिमित वायुको हटाने वाली व्यंजक वायु स्वीकार करना तथा उनमें नाना शक्तियों की कल्पना भी करना, इस प्रकार इतनी सारी अदृष्ट कल्पनायें ( जो कि प्रमाण से प्रसिद्ध हैं ) आप मीमांसकों को ही करनी होगी हम जैन को नहीं। हम जैन शब्द को पुद्गल द्रव्य की पर्यायरूप मानते हैं, आगे यथा अवसर ( तृतीय भाग में ) सिद्ध करेंगे कि शब्द आकाश द्रव्यका गुण नहीं है अपितु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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