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________________ शब्दनित्यत्ववादः ५१७ जैनेन हि निर्दिष्टं श्रोतारं प्रति शब्दस्य सर्पणं कापिलेन तु वक्तारम् श्रोत्रादेर्यत्तदेव साधीयोsस्मान्नैयायिकोपकल्पितात् वीचीतरंगन्यायेन शब्दस्यामूर्तस्यागमनात् । तदप्यत्र युक्त्या नैवावतिष्ठते । यस्मात् "शब्दस्यागमनं तावददृष्टं परिकल्पितम् । मूत्तिस्पर्शादिमत्त्वं च तेषामभिभवः सताम् ।।१।। त्वगग्राह्यत्वमन्ये च भागाः सूक्ष्माः प्रकल्पिताः । तेषामदृश्यमानानां कथं च रचनाक्रमः ।।२।। कीदृशाद्रचनाभेदाद्वर्णभेदश्च जायताम् । द्रवित्वेन विना चैषां संक्लेषः (संश्लेषः)कल्प्यते कथम् ॥३॥ आगच्छतां च विश्लेषो न भवेद्वायुना कथम् । लघवोऽवयवा ह्यते निबद्धा न च केनचित् ।।४।। वृक्षाद्य भिहतानां च विश्लेषो लोष्टवद्भवेत् ।। एकश्रोत्रप्रवेशे च नान्येषां स्यात्पुनः श्रुतिः ।।५।। श्रोता के पास चला जाता है और सांख्य कहते हैं कि श्रोत्र वक्ता के पास चला जाता है, सो यह मान्यता इस नैयायिक की कल्पना से श्रेयस्कर ही है क्योंकि नैयायिक तो शब्द को अमूर्त मानकर पुनः उसका वीचीतरंग न्याय से आगमन होना मानते हैं । किन्तु यह जैनादि सभी परवादियों का कथन हमारी युक्ति के आगे ठहरता नहीं। आगे इसी का खुलासा करते हैं- शब्द का अागमन मानना अदृष्ट परिकल्पना मात्र है अर्थात् प्रमाण से सिद्ध नहीं है, तथा शब्दों को मूत्तिक स्पर्शादिमान मानना एवं अभिभव मानना भी प्रसिद्ध है ।।१।। स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा शब्दों का अग्राह्य कहना, उनके सूक्ष्म भाग कल्पित करना यह सब असत् है ( क्योंकि यदि शब्द स्पर्शादिमान है तो स्पर्शनेन्द्रिय से ग्राह्य क्यों नहीं इत्यादि प्रश्न होते हैं और उनके समाधानकारक उत्तर नहीं मिलते ) यदि शब्द अदृश्य हैं तो उनका रचनाक्रम किस प्रकार होगा यह भी एक समस्या है ।।२।। तथा किस तरह के रचना भेद से वर्ण भेद होगा ? शब्दों में द्रवपना ( तरलपना ) भी नहीं है फिर उनका परस्पर संश्लेष किस प्रकार होगा ? अर्थात् नहीं हो सकता ।।३।। जब शब्द कर्ण के पास पा रहे हों तब उनका वायु द्वारा विश्लेष भी कैसे नहीं होगा ? क्योंकि शब्द तो लघु अवयवरूप हैं उनको किसी ने संबद्ध भी नहीं किया है ।।४।। पाते हुए शब्द जब वृक्ष, भित्ति आदि से अभिहत होवेंगे तब मिट्टी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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