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________________ शब्दनित्यत्ववादः ४८७ तदप्यचारु; भ्रान्तेनाऽभ्रान्तस्य व्यभिचाराऽयोगात् । शब्दे हि महत्त्वादिप्रत्ययोऽभ्रान्तो बाधवजितत्वादित्युक्तम् । मुखे तु भ्रान्तो विपर्ययात् । न चान्यस्य भ्रान्तत्वेऽन्यस्यापि तत्, अन्यथा सकलशून्यतानुषंग:-स्वप्नादिप्रत्ययवत्सकलप्रत्ययानां भ्रान्ततापत्तेः । न च खंगे प्रतिबिम्बितदीर्घतया मुखमेवाऽऽभाति दर्पणे तु वर्तुलतया गौरनीले काचे नीलतया; किन्तु तदाकारस्तत्र प्रतिबिम्बितस्तद्धमानुकारी प्रतिभाति । न च शब्दस्याप्याकारो ध्वनौ, ध्वनेर्वा शब्दे प्रतिबिम्बितस्तद्धर्मानुकारी भवतीत्यभिधातव्यम्; शब्दस्याऽमूर्त्तत्वेन मूर्ते ध्वनी तत्प्रतिबिम्बनाऽसम्भवात् । मूर्तानामेव हि मुखादीनां मूर्ते दर्पणादौ तत्प्रतिबिम्बनं दृष्टं नाऽमूर्तानामात्मादीनाम् । न चाऽश्रोत्रग्राह्यत्वे ध्वनेः प्रतिबिम्बितोप्याकारः श्रोत्रेण ग्रहीतु शक्योऽतिप्रसंगात् । तद्ग्राह्यत्वे वा अपरशब्दकल्पना व्यर्थेत्युक्तम् । यच्चाप्युक्तम् जैन-यह कथन असत् है, भ्रान्त प्रतिभास द्वारा अभ्रान्त प्रतिभास में व्यभिचार देना अयुक्त है, शब्द में जो अल्प महत्व का ज्ञान होता है वह तो सत्य है, क्योंकि इस ज्ञान में बाधा नहीं आती, किन्तु मुख में होने वाला अल्पत्वादि का ज्ञान बाधा युक्त होने से भ्रान्त है। अन्य के भ्रान्त होने से अन्य कोई भ्रान्त नहीं बनता अन्यथा सकल शून्यता का प्रसंग होगा । स्वप्न ज्ञान भ्रान्त होने से सभी ज्ञानों को भ्रांत मानना होगा। प्रतिबिम्ब की बात कही सो उस विषय में खुलासा करते हैं-तलवार में प्रतिबिम्ब के दीर्घरूप होने से मुख ही दीर्घ रूप प्रतीत होवे ऐसा नहीं है तथा दर्पण में वर्तुल रूप एवं सफेद नीली काच में नील रूप प्रतीत होवे सो भी नहीं है किन्तु दर्पण आदि प्रतिबिम्बित हुआ मुख का जो आकार है वही दर्पणादि के वर्तुलादि धर्म का अनुकरण करता है। किन्तु शब्द के विषय में ऐसी बात नहीं है अर्थात शब्द का आकार ध्वनि में या ध्वनि का प्राकार शब्द में प्रतिबिम्बित होकर उसके आकार का अनुकरण करता है ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि आप शब्द को अमूर्तिक मानते हैं अमूर्तिक का मूर्तिक ध्वनि में बिम्बित होना असंभव है। देखा जाता है कि मूर्तिक मुख आदि मूर्तिक दर्पणादि में प्रतिबिम्बित होते हैं किन्तु अमूर्त आत्मा आदि नहीं होते हैं । तथा मीमांसक ध्वनि को श्रोत्र ग्राह्य नहीं मानते हैं इसलिये शब्द में ध्वनि का आकार प्रतिबिम्बित होने पर भी श्रोत्र द्वारा ग्रहण होना अशक्य है अन्यथा अतिप्रसंग होगा, यदि ध्वनियों के आकार को श्रोत्र ग्राह्य मानते हैं तब तो शब्द को मानना ही व्यर्थ ठहरता है क्योंकि शब्द का सारा कार्य तो ध्वनियों ने किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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