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________________ ४८८ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे "यथा महत्यां खातायां मृदि व्योम्नि महत्त्वधीः । अल्पायमल्पधीरेवमत्यन्ताऽकृतके मतिः ॥ तेनात्रैवं परोपाधिः शब्दवृद्धौ मतिभ्रं मः ( मतिभ्रमः ) । न च स्थूलत्वसूक्ष्मत्वे लक्ष्येते शब्दवत्तिनी |" [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो०२१७-२१८ ] तदप्यसमीचीनम्; व्योम्नोऽतीन्द्रियत्वेन महत्त्वादिप्रत्ययविषयत्वायोगात् । तद्योगो चाल्पया खातयाऽवष्टब्धो व्योमप्रदेशोऽल्पो महत्या च महानिति नाऽनेनाऽनेकान्तः । निरवयवत्वे हि तस्या - वद्वयापित्वासम्भवः, श्रत्यन्ताकृतकत्वेन च क्रमयौगपद्याभ्यामर्थ क्रियाविरोध इति वक्ष्यते । तथा शब्दस्यापि सावयवत्वाभ्युपगमे - Jain Education International "पृथग् न चोपलभ्यन्ते वर्णस्यावयवाः क्वचित् । न च वर्णेष्वनुस्ता दृश्यन्ते तन्तुवत्पटे ||१|| मीमांसक - जिस प्रकार मिट्टी की खदान में बड़ा भारी गड्ढा खोदने पर आकाश में महानपने की बुद्धि होती है ( परवादी पोल को आकाश मानते हैं अतः किसी भी ठोस वस्तु को भीतर भीतर ही पोल करे तो उसमें आकाश है अन्यथा नहीं ऐसी इनकी कल्पना है, उसी के आधार पर दृष्टांत दे रहे हैं ) और अल्प गड्ढे के खोदने पर अल्पपने की वृद्धि होती जब कि आकाश अत्यंत अकृतक है ||१|| इसी प्रकार शब्द में वृद्धि का भ्रम हो जाता है अर्थात् ध्वनियों की वृद्धि में शब्द वृद्ध हुआ और हानि में हीन हुए ऐसा ज्ञान हो जाया करता है, किन्तु शब्द में स्थूलत्व और सूक्ष्मत्व ( वृद्धि हानि ) नहीं होते हैं । जैन - यह मीमांसक का कथन असत्य है, आकाश प्रतीन्द्रिय है उसमें बड़ा छोटा ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता है। जब वह प्रतीन्द्रिय ही है तब अल्प गड्ढे के खोदने से अल्प आकाश और महान गड्ढे के खोदने पर महान ग्राकाश हुआ ऐसी कल्पना नहीं हो सकती और न इसके द्वारा अनैकान्तिक दोष आता है । तथा प्राप आकाश को निरवयवी मानते हैं निरवयत्व में अणु के समान व्यापकपना भी असंभव है तथा अत्यंत प्रकृतक ऐसे आकाश में क्रमश: और युगपत रूप से अर्थ क्रिया का होना भी असंभव है ऐसा आगे निश्चित करने वाले हैं । मीमांसक शब्द को सावयव मानते हैं तो उनके ग्रंथ का निम्नलिखित कथन विरुद्ध होता है कि- वर्ण के अवयव कहीं पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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