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________________ ४८६ प्रमेयकमलमार्तण्डे व्यक्त्यल्पत्वमहत्त्वे हि तद्यथानुविधीयते । तथैवानुविधातायं ध्वन्यल्पत्वमहत्त्वयोः ॥२॥' [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. २१३-२१४ ] इति । सदृशपरिणामो हि सामान्यम् । तस्य च वर्णवदऽल्पत्वमहत्त्वसम्भवात् कथं तेनानेकान्तः ? भवत्कल्पितं तु सामान्यमग्रे निषिद्धत्वात्खरविषाणप्रख्यमिति कथं तेन व्यभिचारोद्भावनम् ? यदप्युच्यते व्यंगयानां चैतदस्तीति लोकेप्यकान्तिकं न तत् । दर्पणाल्पमहत्त्वे हि दृश्यतेऽनुपतन्मुखम् ।।१।। न स्यादव्यंगयता तस्मिस्तत्क्रियाजन्यतापि वा। न चास्योच्चारणादन्या विद्यते जनिका क्रिया ॥२॥" [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१५-२१६ ] उनका अनुविधाता सामान्य होता है, उसी प्रकार ध्वनि के अल्प महत्व धर्म का अनुविधाता वर्ण है ऐसा मानना चाहिये इत्यादि । इस मीमांसक के कथन का अभिप्राय यह है कि ध्वनि के अल्प महत्व के कारण वर्ण में वैसा ज्ञान हो जाया करता है यदि ऐसा न मानकर अल्पत्वादि को वर्ण के निजी धर्म माने जायेंगे तो शब्दत्व सामान्य में अल्पत्वादि की प्रतीति होने से उसमें भी उन धर्मों को मानना पड़ेगा। किन्तु यह कथन गलत है, हम जैन सदृश परिणाम को सामान्य मानते हैं उस सामान्य में वर्ण के समान अल्पत्व महत्व धर्म रहना संभव होने से उसके साथ व्यभिचार दोष देना किस प्रकार संभव है ? और आप मीमांसक द्वारा मान्य सामान्य का आगे निराकरण किया है अतः खर विषाण सदृश उस सामान्य द्वारा व्यभिचार दोष का उद्भावन किस प्रकार हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है। ___मीमांसक-शब्द व्यंग्य है व्यंग्य व्यञ्जक का अनुकरण करते हैं यह बात लोक में भी देखी जाती है, अतः वह अनैकान्तिक नहीं है, दर्पण के अल्प महत्व के अनुसार उसमें पड़ा हुया मुख का प्रतिबिम्ब छोटा बड़ा दिखता है ।।१॥ किन्तु इतने मात्र से मुख में व्यंग्य धर्म नहीं हो अथवा वह दर्पण की क्रिया से जन्य हो सो बात नहीं है । तथा शब्द में उच्चारण को छोड़कर अन्य उत्पन्न होने रूप क्रिया भी नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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