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________________ शब्दनित्यत्ववादः च घटादेरपि तथा तत्सत्त्वप्रसंगः। निर्हेतुकत्वेन सर्वदा भावानुषंगश्चोभयत्र समानः । द्वितीयस्तु पक्षोऽसंगतः; तयोस्तत्र प्रतीयमानत्वेन स्वभावतस्तद्रहितत्वासिद्धेः । न खलु महति तालवादी महानऽल्पे चाल्पः शब्दो न प्रतीयते, सर्वत्र तयोरनाश्वासप्रसंगात् । यदप्युक्तम्- - 'न हि वर्णों वर्द्धते' इत्यादि; तत्र यदि तावत् 'अल्पतात्वादिजनितो वर्णादिल्पो महतस्तात्वादिव्यापारान्न वर्द्ध ते' इत्युच्यते; तदा सिद्धसाधनम् । न हि घटोऽल्पान्मृत्पिण्डात्तथाविधो जातोऽन्यतः स एव वर्द्धते अघटत्वप्रसंगात्, घटान्तरमेव वा स्यात् । प्रथान्यपि वृद्धिमान्न जायते; तन्न; तथाविधस्य दृष्टत्वात् । दृष्टस्य चापह्नवाऽयोगात् । एतेनैतन्निरस्तम् "अथ ताद्रूप्यविज्ञानं हेतुरित्यभिधीयते । तथापि व्यभिचारित्वं शब्दत्वेपि हि तन्मतिः ॥ १ ॥ ४८५ आदि कारण की अल्पता महत्ता से ऐसा मानना पड़ेगा । यदि कहा जाय कि घटादि काल्प महत्व निर्हेतुक होता तो सर्वदा बना रहता ? सो यह दोष शब्द में भी घटित होता है । दूसरा पक्ष भी गलत है क्योंकि शब्द में वे दोनों धर्म प्रतीत हो रहे हैं अतः शब्द स्वभाव से ही अल्पत्वादि धर्म से रहित होता है ऐसा कहना प्रसिद्ध ठहरता है । शब्द तालु आदि के महान् व्यापार होने पर महान और अल्प व्यापार में अल्प रूप से प्रतीत नहीं होता हो सो बात नहीं है प्रतीति में आते हुए भी इन अल्पत्व आदि को शब्द में न माना जाय तो सर्वत्र (घटादि में) नहीं मानने का प्रसंग आता है । आपने कहा कि वर्ण बढ़ता नहीं है इत्यादि सो उसमें यह बात है कि जो वर्ण अल्प तालु आदि से उत्पन्न हुआ है वह महान तालु आदि के व्यापार होने पर बढ़ता नहीं है ऐसी मान्यता हो तब तो सिद्ध साधन है, क्योंकि जो घट अल्प मिट्टी से अल्प आकार में बन चुका है वही घट अन्य अन्य मिट्टी द्वारा बढ़ाया नहीं जा सकता, अन्यथा उसमें अघटत्व का प्रसंग होगा अथवा घटान्तरपना आयेगा । यदि कहा जाय कि दूसरा वर्ग भी नहीं बढ़ता तो यह कथन असत्य है, क्योंकि अन्य अन्य वर्ण उदात्त आदि रूप से बढ़ते हुए देखे जाते हैं, देखे हुए धर्म का अपह्नव असंभव है । Jain Education International इसी प्रकार निम्नलिखित कथन भी निरस्त होता है कि वर्ण में उस प्रकार की अल्प महत्वरूप प्रतीति होने से उसे अल्पत्वादि से युक्त मानते हैं तो शब्दत्व सामान्य में भी उस प्रकार की प्रतीति होने के कारण व्यभिचार दोष आता है । जिस प्रकार लोक व्यवहार में माना जाता है कि अल्प महत्व धर्म व्यक्ति में रहते हैं और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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