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________________ ४८४ प्रमेयकमलमार्तण्डे "कारणानुविधायित्वं यच्चाल्पत्वमहत्त्वयोः । तदसिद्ध न वर्णो हि वर्धते न पदं क्वचित् ।। वर्णान्तरजनौ तावत्तत्पदत्वं विहन्यते । अपदं हि भवेदेतद्यदि वा स्यात्पदान्तरम् ।। वर्णोऽनवयवत्वात्तु वृद्धिह्रासौ न गच्छति । व्योमादिवदतोऽसिद्धा वृद्धिरस्य स्वभावतः ॥" [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१०-२१२] अत्रोच्यते-किं कारणानुविधायित्वमल्पत्वमहत्त्वयोः स्वभावसिद्धत्वादसिद्धम्, आहोस्विकारणाल्पत्वमहत्त्वाभ्यां शब्दस्याल्पत्वमहत्त्वे एव न विद्यते स्वभावतस्तद्रहितत्वात् इति ? तत्राद्यपक्षे स्वभावे एव वास्याऽल्पत्वमहत्त्वे विद्यते, न तु ते तस्य कारणाल्पत्वमहत्त्वाभ्यां कृते इत्यायातम्, तथा समाधान - यह बात शब्द में भी घटित होती है प्रत्येक क, ख आदि शब्द को एक व्यक्ति रूप ही मानते हैं तो शब्द तालु अादि के उत्कर्ष से उदात्त और अपकर्ष से अनुदात्त धर्म युक्त होता है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होगा अपितु सर्वत्र समान ही प्रतीत होगा। मीमांसक- तालु आदि के महत्त्व से शब्द का महत्त्व आदि रूप होना असिद्ध है, इसी को ग्रन्थाधार से सिद्ध करते हैं - शब्द के कारण जो तालु आदिक हैं उसके अल्प और महान होने से शब्द अल्प और महान होता है ऐसा मानना प्रसिद्ध है क्योंकि न वर्ण बढ़ता हुआ दिखाई देता है और न कहीं पर पद ही बढ़ता हुअा दिखाई देता है ।।१।। तथा जब वर्णान्तर उत्पन्न होता है तब उसका पदत्व नष्ट होता है ऐसा माना जायगा तो प्रथम वर्ण को अपदत्व बन जाने का या पदान्तर रूप होने का प्रसंग आता है ।।२।। अवयव रहित होने के कारण वर्ण वृद्धि और ह्रास को प्राप्त नहीं होता है । उसमें तो अाकाश आदि के समान स्वभाव से ही वृद्धि होने की असिद्धि है ।।३।। __ जैन-यह कथन असार है, आपने जो कहा कि कारण के अनुसार शब्द में अल्पत्व और महत्व होना प्रसिद्ध है, सो क्यों असिद्ध है शब्द में वे धर्म स्वभाव से सिद्ध होने से अथवा स्वभाव से उन धर्मों से रहित होने से ? प्रथम पक्ष लेवे तो शब्द के स्वभाव में ही अल्प महत्व है कारण कि अल्प महत्व से किया हुया नहीं है ऐसा सिद्ध हुआ ? फिर शब्द के समान घट आदि में भी स्वभाव से अल्पत्व और महत्व होता है न कि मिट्टी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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