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शब्दनित्यत्ववादः
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विपर्ययात्; ननु ज्ञानजनकत्वान्नापरं व्यंजकत्वम् । तथा सत्यल्पेन चक्षुषा व्यज्यमानः पर्वतो महानपि तद्धर्मारोपात्तत्परिमाणतया प्रतीयेत सर्षपश्च बृहत्परिमाणतया, न चैवम् । तन्नैते ध्वनिधर्मा उदात्तायोऽपि तु शब्दधर्माः । तथाप्यस्यैकव्यक्तिकत्वे घटादेरपि तदस्तु विशेषाभावात् ।
ननु चास्यैकत्वे नभोवत्काररणानायत्तत्वान्न तदुत्कर्षापकर्षाभ्यामुत्कर्षापकर्षों स्याताम् ; तच्छब्देपि समानम् - तस्यानि हि प्रत्येकमेकव्यक्तिकत्वे ताल्वोत्कर्षापकर्षाभ्यामुत्कर्षापकर्षयोगो न स्यात्, किन्तु सर्वत्र तुल्यप्रतीतिविषयता स्यात् । ननु चासिद्ध तालवादेर्महत्त्वादेः, शब्दस्य महत्त्वादिकम्; तथाहि
मीमांसक - उदात्त प्रादि धर्म कर्ण द्वारा भाव रूप से ग्रहण नहीं होते किन्तु आरोप से ग्रहण में आते हैं ?
जैन - ग्रहण किये बिना आरोप भी किस प्रकार हो सकता है ? अन्यथा शब्द में भासुरत्व आदि धर्म का आरोप भी मानना पड़ेगा ।
मीमांसक - ध्वनियां शब्द की व्यंजक हुआ करती हैं प्रत: उनके धर्म का आरोप शब्द में हो जाता है किन्तु रूपादि शब्द के व्यंजक नहीं हैं अतः उसका उसमें आरोप नहीं होता है ?
जैन - ज्ञान को उत्पन्न करना व्यंजक कहलाता है इससे अन्य तो व्यंजकत्व नहीं है अब यदि ऐसे व्यंजक का धर्म पदार्थ में ( व्यंग्य में ) आरोपित होता है ऐसा माना जाय तो छोटी सी चक्षु द्वारा व्यज्यमाण पर्वत महान होते हुए भी चक्षु जितना छोटा दिखायी देगा ? क्योंकि चक्षु व्यंजक हैं और व्यंजक का धर्म व्यंग्य में प्रारोपित होता है ऐसा आपने कहा है ? तथा सरसों वृहत् परिमाण वाली दिखायी देगी, क्योंकि चक्षु का धर्म उसमें आरोपित होता है ? किन्तु ऐसा नहीं होता इससे सिद्ध होता है कि उदात्तादि धर्म ध्वनियों के नहीं हैं, अपितु शब्दों के हैं । ऐसी बात होते हुए भी यदि शब्दों को एक व्यक्तिरूप ही माना जाय तो घट पट आदि को भी एकत्व रूप मानना होगा ? दोनों में कोई विशेषता नहीं है ।
शंका- - घट आदि को यदि एक रूप माना जाय तो आकाश के समान वह भी कारणाधीन नहीं होगा ? फिर कारण के उत्कर्ष ( मिट्टी के अधिक ) होने पर घट का उत्कर्ष ( बड़ा ) होना और कारण के अपकर्ष ( मिट्टी के अल्प ) होने पर घट का अपकर्ष ( छोटा ) होना सिद्ध नहीं होगा ?
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