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________________ ४८२ प्रमेयकमलमार्तण्डे तोस्ति, अन्यथा तयोरविशेषप्रसंगात्, चक्रा दिव्यापारवैयर्थ्यानुषंगाच्च । अथ घटादेरसर्वगतत्वान्न तद्वयञ्जनसन्निधाने सर्वत्रोपलम्भः, शब्दस्य तु सम्भवति विपर्ययात्; इत्यप्यनिरूपिताभिधानम्; तस्य सर्वगतत्वाऽसिद्धः । तथाहि-न सर्वगतः शब्दः सामान्य विशेषवत्त्वे सति बाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वाद् घटादिवत् । ततो घटादिभ्यः शब्दस्य विशेषाभावादुभयोः कार्यत्वं व्यंगयत्वं चाभ्युपगन्तव्यम् । किंच, एते ध्वनयः श्रोत्रग्राह्याः, न वा ? श्रोत्रग्राह्यत्वे अत एव शब्दाः तल्लक्षणत्वात्तेषाम् । तत्र च तात्त्विका एवोदात्तादयो धर्माः। तथा चापरशब्दकल्पनानर्थक्यम् । अथ न श्रोत्रग्राह्याः; कथं तहि तद्धर्मा उदात्तादयस्तद्ग्राह्याः ? न हि रूपादीनां धर्मा भासुरत्वादयो रूपादेरग्रहणे श्रोत्रेण गृह्यन्ते । अथ न भावतस्तेन ते गृह्यन्ते, किन्त्वारोपात् । ननु चाऽगृहीतस्यारोपोपि कथम् ? अन्यथा भासुरत्वादेरपि तत्रारोपः स्यात् । अथ व्यंजकत्वाद् ध्वनीनां तद्धर्मा एव तत्रारोप्यन्ते, न रूपादीनां कारक और व्यंजक कारणों में अन्तर ही नहीं रहता। फिर तो दीपक जलने मात्र से घट तैयार हो जाता, कुम्भकार, चक्र मिट्टी आदि को क्रिया व्यर्थ ही ठहरती । शंका-घट आदि पदार्थ असर्वगत होने से व्यंजक कारण के निकट होने पर भी उसकी सर्वत्र उपलब्धि नहीं होती, किन्तु शब्द तो सर्वगत है अतः व्यंजक के निकट होने पर उसकी सर्वत्र उपलब्धि हो जाती है । समाधान-यह कथन असत् है। शब्द का सर्वगतत्व प्रसिद्ध है। इसी को अनुमान द्वारा सिद्ध करते हैं - शब्द सर्वगत नहीं है, क्योंकि सामान्य विशेष रूप होकर बाह्य एक इन्द्रिय (कर्ण) के द्वारा प्रत्यक्ष होता है, जैसे घट आदि एक इन्द्रिय (नेत्र) द्वारा प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार घट ग्रादि से शब्द की कोई विशेषता सिद्ध नहीं होने से दोनों में कार्यत्व या व्यंगत्व समान रूप से कोई एक ही मानना चाहिये । ___ मीमांसक के यहां शब्द की व्यंजक ध्वनियां मानी हैं वे कर्ण द्वारा ग्राह्य हैं तो उसीको शब्द कहना होगा, क्योंकि शब्द का यही लक्षण है। तथा ध्वनियों में उदात्त आदि धर्म वास्तविक ही माने जाते हैं। इस प्रकार ध्वनियां ही शब्द रूप सिद्ध होने से इनसे अन्य शब्द की कल्पना करना व्यर्थ ठहरता है। यदि कहा जाय कि ध्वनियां कर्ण ग्राह्य नहीं हैं तो उनके उदात्तादि धर्म किस प्रकार कर्ण ग्राह्य हो सकेंगे ? रूपादि युक्त पदार्थों के भासुरत्वादि धर्म रूपादि के कर्ण द्वारा अग्रहीत होने पर ग्रहण में नहीं पाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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