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प्रमेयकमलमार्तण्डे
नयनकेशा एव तत्र तथाऽसन्तोपि प्रतिभासन्ते; तहि तद्रहितस्य कामलिनोपि तत्प्रतिभासाभाव! स्यात् ।
किञ्च, असौ तद्देशे एव प्रतिभासो भवेन्न पुनर्देशान्तरे । न खलु स्थाणुनिबन्धना पुरुषभ्रान्तिस्तद्देशादन्यत्र दृष्टा । कथं च तद्देशता तदाकारता चाऽसती तज्ज्ञानं जनयेद्यतो ग्राह्या स्यात् । अथ भ्रान्तिवशात्तत्केशाएव तत्र तथा तज्ज्ञानं जनयन्ति; अस्माकमपि तर्हि 'चक्षुर्मनसी रूपज्ञानमुत्पादयेते' इति समानम् । यथैव ह्यन्यविषयजनितं ज्ञानमन्यविषयस्य ग्राहक तथान्यकारणजनितमपि स्यात् ।
अथ कामलादय एव तज्ज्ञानस्य हेतवः; तेभ्यश्चोत्पन्नं तदसदेव केशादिकं प्रतिपद्यते; तहि निर्मललोचनमनोमात्रकारणादुत्पद्यमानं ज्ञानं सदेव वस्तु विषयीकरोतीति किन्नेष्यते ?
जगह प्रतीति आना शक्य नहीं है। नेत्र केश केशोण्डुकरूपसे उस ज्ञानमें झलकते हैं ऐसी तीसरी मान्यता कहो तो नेत्र केश रहित पीलियादि रोग वाले पुरुषको केशोण्डुक का प्रतिभास नहीं होना चाहिये, किन्तु उसको भी वैसा प्रतिभास होता है।
तथा मेत्रके केश यदि केशोण्डुकरूप प्रतीत होते हैं तो वे उस नेत्र स्थान पर ही प्रतीत होते हैं, अन्य स्थान पर (सामने आकाश में) प्रतीत नहीं हो सकते थे । सखे वृक्षरूप ठूट में पुरुषपने की भ्रांति होती है वह उस स्थान पर ही तो होती है, अन्यत्र तो नहीं होती? यह जो नेत्र रोगीको केशोण्डुकका ज्ञान हो रहा है उसमें न तो तद्देशता है अर्थात् नेत्रकेश तो नेत्र स्थान पर है और प्रतीति होती है सामने आकाश में, तथा उस ज्ञानमें तदाकारता भी नहीं अर्थात् नेत्र केश का आकार भी नहीं है, फिर किसप्रकार वह उस केशोण्डुक ज्ञानको पैदा करता है, जिससे वह ग्राह्य हो जाय ? तुम कहो कि नेत्रके केश ही भ्रम वश माकाश में केशोण्डुक रूपसे केशोण्डुकका ज्ञान पैदा करते हैं, तो हम जैन कहते हैं कि नेत्र तथा मन ही ऐसे ज्ञानको उत्पन्न करता है ? इस तरह समान ही बात हो जाती है ? जिस प्रकार अन्य विषयसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अन्य विषयका ग्राहक होता है ऐसा यहां मान रहे हो, उसीप्रकार अन्य कारणसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अन्यको जानता है ऐसा भी मानना चाहिए।
अब चौथे पक्ष पर विचार करते हैं-नेत्र रोगीको केशोण्डुक का ज्ञान होता है उसमें कामला आदि रोग ही कारण है उन कामलादि से उत्पन्न हुआ वह असतू ऐसे केशादिको ग्रहण करता है, यदि इसतरह नैयायिक कहे तो हम जैन कहते हैं कि निर्मल नेत्र तथा मन रूप कारणसे उत्पन्न हुआ ज्ञान वास्तविक सतू-पदार्थको ग्रहण करता है ऐसा क्यों न माना जाय ? अवश्य ही मानना चाहिये ।
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