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________________ अर्थकारणतावादः यथोग्नेधूमः । न चानयोरन्वयव्यतिरेको ज्ञानेनानुक्रियेते । अत्रोभयप्रसिद्धदृष्टान्तमाह-केशोण्डकज्ञानवन्नक्तञ्चरज्ञानवच्च । कामलाद्य पहाचक्षुषो हि न केशोण्डकज्ञानेर्थः कारणत्वेन व्याप्रियते। तत्र हि केशोण्डुकस्य व्यापार:, नयनपक्ष्मादेर्वा, तत्केशानां वा, कामलादेर्वा गत्यन्तराभावात् ? न तावदाद्यविकल्पः; न खलु तज्ज्ञानं केशोण्डुकलक्षणेर्थे सत्येव भवति भ्रमाभावप्रसङ्गात् । नयनपक्ष्मादेस्तत्कारणत्वे तस्यैव प्रतिभासप्रसङ्गात्, गगनतलावलम्बितया पुरःस्थतया केशोण्डुकाकारतया च प्रतिभासो न स्यात् । न ह्यन्यदन्यत्रान्यथा प्रत्यैतु शक्यम् । अथ दोनों ज्ञानके कारण नहीं हैं । जो जिसका नियमसे अन्वय व्यतिरेको होगा वह उसका कार्य कहलायेगा, जैसे अग्निके साथ धूमका अन्वय व्यतिरेक होनेसे धूम अग्निका कार्य माना जाता है, किन्तु ऐसा अन्वय व्यतिरेक पदार्थ और प्रकाश के साथ ज्ञानका नहीं पाया जाता है। इस विषयमें वादी प्रतिवादी प्रसिद्ध दृष्टान्तको उपस्थित करते हैं-पीलिया, मोतिया आदि रोग से युक्त व्यक्तिके ज्ञानमें पदार्थ कारण नहीं दिखाई देता अर्थात् नेत्र रोगीको केश मच्छर आदि नहीं होते हुए भी दिखायी देने लग जाते हैं, वह मच्छरादिका ज्ञान पदार्थ के अभावमें ही हो गया, वहां उस ज्ञानमें पदार्थ कहां कारण हुया ? तथा बिलाव आदि प्राणियोंको प्रकाशके अभाव में भी रात्रिमें ज्ञान होता है उस ज्ञान में प्रकाश कहाँ कारण हुआ ? हम जैन नैयायिक आदि परवादीसे पूछते हैं कि नेत्र रोगी को केशोण्डुक (मच्छर) का ज्ञान हुआ उसमें कौनसा पदार्थ कारण पड़ता है, केशोण्डुक ही कारण है या नेत्रकी पलकें; अथवा उसके केश, या कामला आदि नेत्र रोग ? इन कारणों को छोड़कर अन्य कारण तो बन नहीं सकते प्रथम पक्ष की बात कहो तो बनता नहीं देखिये ! यह ज्ञान केशोण्डुक के रहते हुए नहीं होता, यदि होता तो भ्रम क्यों होता कि यह प्रतिभास सत्य है या नहीं? दूसरा पक्ष-नेत्रकी पलकें उस ज्ञान में कारण है ऐसा माने तो उसीका प्रतिभास होना था ? सामने आकाशमें निराधार केशोण्डुक को शकल जैसा प्रतिभास क्यों होता ? (केशोण्डुक शब्दका अर्थ उड़नेवाला कोई मच्छर विशेष है, मोतिया बिन्दु आदि नेत्रके रोगीको नेत्रके सामने कुछ मच्छर जैसा उड़ रहा है ऐसा बार बार भाव होता है, वह मच्छर भौंरा जैसा, झिंगुर जैसा, जिस पर कुछ रोम खड़े हो जैसा दिखाई देने लगता है वास्तवमें वह दिखना निराधार बिना परार्थके ही होता है) अन्य किसी वस्तुको अन्यरूपसे अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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