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________________ अर्थकारणतावादः तत्कथमर्थकार्यता ज्ञानस्य अनेन व्यभिचारात् संशयज्ञानेन च ? न हि तदर्थे सत्येव भवति; अभ्रान्तत्वानुषङ्गात्, तद्विषय भूतस्य स्थाणुपुरुषलक्षणार्थद्वयस्यैकत्र सद्भाचासम्भवाच्च । सद्भावे वारेका न स्यात् । अथोच्यते-“सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादुभयविशेषस्मृतेश्च संशयः" [ वैशे. सू. २।२।१७ ] विपर्ययः पुनस्तद्विपरीतविशेषस्मृतेः इत्यर्थादेवानयो र्भावः; तदप्युक्तिमात्रम् ; तयोः खलु सामान्यं वा हेतुः स्यात्, विशेषो वा, द्वयं वा ? न तावत्सामान्यम् ; तत्र संशयाद्यभावात् 'सामान्य प्रत्यक्षात्' इत्यभिधानात्, प्रत्यक्षे च संशयादिविरोधात् । भावार्थः-नैयायिक आदि परवादी इन्द्रिय और मनके साथ साथ पदार्थ और प्रकाशको भी ज्ञानका कारण मानते हैं उनके लिये जैनाचार्य कह रहे हैं कि कामलादि नेत्रके रोगसे युक्त पुरुषको जो मच्छर प्रादिका प्रतिभास होता है वह बिना पदार्थके ही होता है उस ज्ञानमें पदार्थ कारण कहां हुआ ? यदि कहा जाय कि उस तरह का ज्ञान होने में सदोष नेत्र ही कारण है तब तो यह भलो प्रकार सिद्ध होता है कि निर्दोष नेत्र तथा मन स्वरूप कारणसे सत्य ज्ञान उत्पन्न होता है अर्थात ज्ञानके लिये पदार्थरूप कारणकी कोई जरूरत नहीं रहती है । इसप्रकार ज्ञान पदार्थका कार्य है इस कथनका केशोण्डुक ज्ञानके साथ व्यभिचार आता है तथा संशय ज्ञानके साथ भी व्यभिचार आता है। संशय ज्ञान पदार्थके मौजूदगी में तो होता नहीं, यदि पदार्थके सद्भाव में होता तो संशय होता ही नहीं । संशय ज्ञान का विषय स्थाणु तथा पुरुष है वे दोनों पदार्थ एकत्र पाये जाना तो असंभव है। यदि दोनों एक स्थान पर होते तो संशय हो नहीं सकता था। नैयायिकः- सामान्य के प्रत्यक्ष होनेसे तथा विशेष के प्रत्यक्ष न होनेसे उभय विषय संबंधी स्मरण रूप ज्ञान होता है उसे संशय कहते हैं, अर्थात् ठूट एवं पुरुष दोनों में रहनेवाला सामान्य धर्म जो ऊँचाई है उसका तो ग्रहण हुअा और स्थाणु तथा पुरुषका पृथक पृथक जो विशेष धर्म है उसका ग्रहण नहीं हुप्रा तब संशय ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये जिसमें विशेष है ऐसे सामान्यरूप पदार्थसे ही संशय होता है विना पदार्थके नहीं होता है, तथा विपर्यय ज्ञान विपरीत विशेषकी स्मृति होनेसे उत्पन्न होता है अतः वह भी पदार्थ से होता है, इसप्रकार दोनों ज्ञानोंमें अर्थकारणता मौजूद है ? जैन:-यह कथन ठीक नहीं, आप यह बताइये कि संशय एवं विपर्ययज्ञान में कौनसा पदार्थ कारण है, सामान्य है या विशेष अथवा दोनों ही ? सामान्यको कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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