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________________ ४६० प्रमेयकमलमार्तण्डे किंच, गत्वादीनां वाचकत्वम्, गादिव्यक्तीनां वा ? न तावद्गत्वादीनाम्; नित्यस्य वाचकत्वेऽस्मन्मताश्रयणप्रसङ्गात् । नापि गादिव्यक्तीनाम्; तथा हि-गादिव्यक्तिविशेषो वाचकः, व्यक्तिमात्रं वा ? न तावद्गादिव्यक्ति विशेषः; तस्यानन्वयात् । नापि व्यक्तिमात्रम्; तद्धि सामान्यान्तः पाति, व्यक्तयन्तभूतं वा ? सामान्यान्तः पातित्वे स एवास्मन्मतप्रवेशः । व्यक्तयन्तर्भूतत्वे तदवस्थोऽनन्वयदोष इति । ततोऽर्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपपत्तेनित्यः शब्दः । तदुक्तम् "अर्थापत्तिरियं चोक्ता पक्षधर्मादिवजिता। यदि नाशि निनित्ये वा विनाशिन्येव वा भवेत् ।।१।। शब्दे वाचकसामर्थ्य ततो दूषणमुच्यताम् । फलवद्वयवहारांगभूतार्थप्रत्ययांगता ।।२।। कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जो भेदों में (विशेषों में ) निष्ठ है उसका सामान्य का ग आदि में होना ही असंभव है । जैनादि परवादी गत्व आदि सामान्यको अर्थ का वाचक मानते हैं अथवा गकार आदि विशेष को ? गत्व आदि सामान्य को मान नहीं सकते, क्योंकि नित्य सामान्य को वाचक मान लेने पर हमारे ( मीमांसक ) मत में प्रवेश होने का प्रसंग प्राता है । गकार आदि विशेष को वाचक मानना भी ठीक नहीं है, इसी को बताते हैंगकार आदि शब्द व्यक्ति विशेष पदार्थ का वाचक होता है अथवा व्यक्ति मात्र का वाचक होता है ? गकारादि शब्द व्यक्ति विशेष वाचक होना अशक्य है, क्योंकि उसका अन्वय नहीं होता है । व्यक्ति मात्र भी वाचक नहीं होता, क्योंकि वह व्यक्ति मात्र कौन सा लिया जाय, सामान्य में रहने वाला या व्यक्ति में रहनेवाला ? प्रथम विकल्प कहो तो वही हमारे मत में प्रवेश होने का दोष पाता है। दूसरा विकल्प —व्यक्ति में रहने वाला व्यक्ति मात्र वाचक होता है, ऐसा कहो तो वही अनन्वय दोष आता है । इसलिये अर्थ प्रतिपादकत्व की अन्यथानुपपत्ति से शब्द नित्य रूप सिद्ध होता है । कहा भी हैअर्थापत्ति पक्ष धर्मत्वादि से रहित होती है यदि वह नित्यानित्यात्मक या केवल नित्य स्वभाव वाले शब्दमें वाचक शक्ति को सिद्ध करती है तो क्या दूषण है ऐसा कोई प्रश्न करे तो उसका उत्तर यह है कि प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप जगत का फलवान् व्यवहार अर्थ ज्ञान से होता है और अर्थ ज्ञान का हेतु शब्द है, (अर्थ ज्ञान के बिना व्यवहार निष्फल रूप माना जाता है) शब्द की योग्यता से अर्थ की प्रतीति होती है अतः युक्ति पूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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