SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दनित्यत्ववादः Jain Education International निष्फलत्वेन शब्दस्य योग्यत्वादवगम्यते । परीक्षमाणस्तेनास्य युक्त्या नित्य विनाशयोः ॥ ३ ॥ स धर्मोऽभ्युपगन्तव्यो यः प्रधानं न बाधते । नाङ्गाङ्गयऽनुरोधेन प्रधानफलबाधनम् ||४॥ युज्यते नाशिपक्षे च तदेकान्तात्प्रसज्यते । न ह्यदृष्टार्थसम्बन्धः शब्दो भवति वाचकः ॥५॥ तथा च स्यादपूर्वोपि सर्वः सर्वं प्रकाशयेत् । सम्बन्धदर्शनं चास्य नाऽनित्यस्योपपद्यते ॥ ६ ॥ सम्बन्धज्ञान सिद्धिश्चेद्ध्रुवं कालान्तर स्थितिः । अन्यस्मिन् ज्ञातसम्बन्धे न चान्यो वाचको भवेत् ॥७॥ गोशब्दे ज्ञातसम्बन्धे नाऽश्वशब्दो हि वाचकः । " [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २३७ - २४४ ] इति । शब्द के नित्य नित्य के विषय में परीक्षा करते हुए उस धर्म को स्वीकार करें कि जो प्रधान को ( फल को ) बाधित नहीं करता हो, नित्य शब्द और अर्थ ज्ञान में अंग अंगी भाव ( कारण कार्य भाव ) होने से प्रधान फल में बाधा नहीं आती है । किन्तु शब्द को अनित्य मानने के पक्ष में एकांत से बाधा का प्रसंग प्राता है, क्योंकि अर्थ के साथ जिसका सम्बन्ध प्रज्ञात है वह शब्द अर्थ का वाचक नहीं हो सकता, अर्थात् अनित्य शब्द में अर्थ का संकेत होना असंभव है और संकेत बिना शब्द उसका वाचक नहीं होता, तथा यदि बिना संकेत के ही शब्द को अर्थ का प्रकाशक माना जाय तो प्रश्रुत पूर्व ऐसा शब्द भी अर्थ प्रतीति करा सकेगा एवं सभी शब्द सब अर्थ को प्रकाशित करा सकेंगे ? शब्द को अनित्य मानने के पक्ष में शब्दार्थ के संबंध का ग्रहण अर्थात् इस शब्द का यह वाच्यार्थ है ऐसा संकेत होना बिल्कुल नहीं बनता । यदि इस तरह का वाच्य वाचक संबंध के ज्ञान से अर्थ की प्रतीति होती है ऐसा माने तो अवश्य ही शब्द का कालांतर तक उपस्थित रहना सिद्ध होता है । कोई कहे कि जिसमें संकेत होता है वह शब्द ग्रन्य है और जो वाचक बनता है वह शब्द अन्य है तो यह गलत है, गो शब्द में संकेत ज्ञात हो और अश्व शब्द उसका वाचक हो ऐसा नहीं होता है || १||२||३ ।।४।।५।। ६ ।।७।। ४६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy