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________________ शब्दनित्यत्ववादः ४५६ श्रथ मतम् - पुनः पुनरुच्चार्यमाणः शब्दः सादृश्यादेकत्वेन निश्चीयमानोऽर्थपतिपत्ति विदधाति न पुनर्नित्यत्वात् तदसमीचीनम्; सादृश्येन ततोर्थाऽप्रतिपत्तेः । न हि सदृशतया शब्दः प्रतीयमानो वाचकत्वेनाध्यवसीयते किन्त्वेकत्वेन । य एव हि सम्बन्धग्रहरणसमये मया प्रतिपन्नः शब्दः स एवायमिति प्रतीतेः । किंच, सादृश्यादर्थप्रतीतो भ्रान्तः शाब्दः प्रत्ययः स्यात् । न ह्यन्यस्मिन्नगृहीत संकेतेऽन्यस्मादर्थ - प्रत्ययोऽभ्रान्तः, गोशब्दे गृहीत संकेतेऽश्वशब्दाद्गवार्थ प्रत्ययेऽभ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । न च भूयोऽवयवसाम्ययोगस्वरूपं सादृश्यं शब्दे सम्भवति; विशिष्टवर्णात्मकत्वाच्छब्दानां वर्णानां च निरवयवत्वात् । न च गत्वादिविशिष्टानां गादीनां वाचकत्वं युक्तम्; गत्वादिसामान्यस्याभावात् तदभावश्च गादीनां नानात्वायोगात् सोपि प्रत्यभिज्ञया तेषामेकत्वनिश्चयात् । न चात्र प्रत्यभिज्ञा सामान्यनिबन्धना; भेदनिष्ठस्य सामान्यस्यैव गादिष्वसम्भवात् । समाधान - - यह जैन आदि परवादी की शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सादृश्य द्वारा उस शब्द से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती यह प्रतीयमान शब्द सदृशता के कारण वाचकपने से नहीं जाना जाता किन्तु एकत्व के कारण वाचकपनेसे जाना जाता है क्योंकि जिस शब्द को मैंने संबंध ग्रहण के समय में जाना था वही यह शब्द है, इस प्रकार की प्रतीति आती है । किंच, सादृश्य से अर्थ की प्रतीति होना माने तो शाब्दिक ज्ञान भ्रांत कहलायेगा, क्योंकि जिसमें संकेतका ग्रहण नहीं हुआ है ऐसे शब्द में अन्य शब्द से होने वाली अर्थ प्रतीति प्रभ्रांत नहीं हो सकती यदि इसको अभ्रांत माने तो जिस गो शब्द में संकेत हुआ था उसके नष्ट होने पर ग्रश्व शब्द से गो अर्थ की प्रतीति होना और वह प्रतीति अभ्रांत है ऐसा स्वीकार करना होगा ? क्योंकि संकेतित गो शब्द अनित्य होने के कारण नष्ट हो चुकता है और अश्वादि अन्य शब्द उस वक्त उपस्थित हो सकते हैं । बहुत से अवयवों के साम्य का है योग जिसमें ऐसा सादृश्य शब्द में होना संभव भी नहीं है, क्योंकि शब्द विशिष्ट वर्णात्मक होते हैं और वर्ण निरवयव होते हैं । तथा सामान्य से विशिष्ट ग ग्रादि में वाचकत्व मानना भी युक्त नहीं, गत्वादि सामान्य का अभाव है, वह अभाव भी इसलिये है कि ग आदि में नानापने का प्रयोग है, वह अयोग भी इस कारण से है कि प्रत्यभिज्ञान द्वारा ग आदि शब्दों का एकपने का निश्चय होता है । शब्द में होने वाला प्रत्यभिज्ञान गत्वादि सामान्य के कारण होता है ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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