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________________ ४४२ प्रमेयकमल मार्त्तण्डे पक्षः; अप्रामाण्याभावस्यागमान्तरेपि तुल्यत्वात् । न चासौ तत्र मिथ्या; वेदेपि तन्मिथ्यात्व प्रसंगात् । अथागमान्तरे पुरुषस्य कर्तुं रभ्युपगमात्, पुरुषाणां तु रागादिदोषदुष्टत्वेन तज्जनितस्याऽप्रामाण्यस्यात्र सम्भवात्तत्रासौ मिथ्या, न वेदे तत्राप्रामाण्योत्पादक दोषाश्रयस्य कर्तुं रभावात् । नन्वत्र कुतः कर्तु रभावो निश्चित: ? अन्यतः अत एव वा ? यद्यन्यतः; तदेवोच्यताम्, किमर्थापत्त्या ? अर्थापत्तेश्चेत्; न; इतरेतराश्रयानुषंगात्-प्रर्थापत्तितो हि पुरुषाभावसिद्धावप्रामाण्याभावसिद्धि:, तत्सिद्धौ चार्थापत्तितः पुरुषाभावसिद्धिरिति । द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः प्रतीन्द्रियार्थप्रतिपादनलक्षणार्थस्यागमान्तरेपि सम्भवात् । अथवा परार्थ शब्दोच्चारणरूपको ? प्रथम पक्ष - यदि वेद अपौरुषेय नहीं होता तो उसमें अप्रामाण्यका अभाव नहीं हो सकता था ऐसी अर्थापत्ति जोड़े तो ठीक नहीं, क्योंकि अप्रामाण्यका अभाव तो वेदसे भिन्न जो अन्य ग्रागम हैं उनमें भी पाया जाता है जो कि पुरुषकृत है अतः ऐसा नियम नहीं बना सकते कि अपौरुषेयमें ही अप्रामाण्यका प्रभाव होता है | यदि कहा जाय कि अन्य अन्य श्रागममें तो प्रप्रामाण्यका अभाव वास्तविक रूप से सिद्ध नहीं होता मिथ्यारूपसे भले ही हो ! तो फिर वेदमें भी प्रप्रामाण्यका प्रभाव मिथ्यारूपसे ही सिद्ध होवेगा । मीमांसक — अन्य अन्य जो आगम हैं उनके कर्त्ता पुरुष होते हैं और पुरुष जो होते हैं वे सब ही राग द्वेष आदि दोषोंसे युक्त ही होते हैं अतः ऐसे पुरुषों द्वारा रचित आगमोंमें अप्रामाण्य रहना स्वाभाविक है, क्योंकि अप्रामाण्यका कारण तो दोष ही है, वेदमें ऐसी बात नहीं है उसमें अप्रामाण्य को उत्पन्न करने वाले दोषोंका प्राश्रयभूत पुरुषकर्त्ताका ही प्रभाव है ? जैन - अच्छा तो यह बताओ कि किस प्रमाण द्वारा वेदकर्त्ताका प्रभाव सिद्ध किया जाता है ? अन्य प्रमाणसे या इसी प्रर्थापत्ति से ? अन्य प्रमाणसे कहो तो वह अन्य प्रमाण कौनसा है सो बताओ ? क्या वह प्रमाण अर्थापत्ति ही है ? यदि हां तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, और इसी प्रर्थापत्ति से कहो तो भी यही दोष आता है, प्रथम तो प्रर्थापत्ति से पुरुषके प्रभावकी सिद्धि होने पर उससे अप्रामाण्य के प्रभावकी सिद्धि होगी और उसके सिद्ध होने पर प्रर्थापत्ति से पुरुष के प्रभावकी सिद्धि होगी । दूसरा विकल्प था कि अतीन्द्रिय अर्थके प्रतिपादनका स्वभाव अन्यथा बन नहीं सकता ( यदि वेद अपौरुषेय न होवे ) सो ऐसा प्रप्रामाण्यभावका अन्यथानुपपद्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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