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________________ वेदापौरुषेयत्ववादः ४४१ नाप्यागमतोऽपौरुषेयत्व सिद्धिः इतरेतराश्रयानुषंगात् । तथाहि-पागमस्याऽपौरुषेयत्व सिद्धावप्रामाण्याभावसिद्धिः, तत्सिद्ध श्चातोऽपौरुषेयत्वसिद्धिरिति । न चाऽपौरुषेयत्वप्रतिपादकं वेदवाक्यमस्ति। नापि विधिवाक्यादऽपरस्य परैः प्रामाण्य मिष्यते, अन्यथा पौरुषेयत्वमेव स्यात्तत्प्रतिपादकानां "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे' [ऋग्वेद अष्ट० ८ मं० १० सू० १२१] इत्यादिप्रचुरतरवेदवाक्यानां श्रवणात् । अपौरुषेयत्वधर्माधारतया प्रमाणप्रसिद्धस्य कस्यचित्पदवाक्यादेरसम्भवान्न तत्सादृश्येनोपमानादप्यपौरुषेयत्वसिद्धिः। नाप्यर्थापत्तेः; अपौरुषेयत्वव्य तिरेकेणानुपपद्यमानस्यार्थस्य कस्यचिदप्यभावात् । स ह्यप्रामाण्याभावलक्षणो वा स्यात्, अतीन्द्रियार्थप्रतिपादानस्वभावो वा, परार्थशब्दोच्चारणरूपो वा ? न तावदाद्यः इसीका खुलासा करते हैं कि आगमका अपौरुषेयपना सिद्ध होने पर उससे अप्रामाण्यका अभाव सिद्ध होगा और उसके सिद्ध होने पर प्रागमका अपौरुषेयत्व सिद्ध होवेगा । तथा अपौरुषेयत्वका प्रतिपादन करनेवाला कोई वेदवाक्य भी नहीं मिलता है। दूसरी बात यह है कि वेदमें जो जो वाक्य विधिपरक है वही प्रमाणभूत है ऐसी मीमांसककी मान्यता है यदि आप मीमांसक अन्य वाक्य को भी प्रमाण मानते हैं तो वेदमें पौरुषेयपना सिद्ध होवेगा "हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे” इत्यादि बहुतसे वेद वाक्य सुनने में आते ही हैं ( जिनसे कि वेदका पौरुषेयत्व स्पष्ट होता है ) अतः आगम प्रमाणसे वेदकी अपौरुषता सिद्ध नहीं होती । उपमा प्रमाणसे भी अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं होता कैसे सो बताते हैं-अपौरुषेय धर्मका आधारभूत ऐसा कोई पद वाक्य प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं होता है, अतः उसके साथ सादृश्यको दिखलाकर उपमा द्वारा वेदको अपौरुषता सिद्ध करना शक्य नहीं, सारांश यह है कि कहींपर कोई पद या वाक्य पुरुषके बिना उच्चारित या रचित दिखायी देता तो उसकी उपमा देकर कह सकते हैं कि अमुक पद एवं वाक्य बिना पुरुषके उपलब्ध हुए वैसे ही वेद वाक्य बिना पुरुषके बने हैं इत्यादि । किन्तु जितने पद वाक्य दिखायी सुनायी देते हैं वे सब पुरुषकृत (पौरुषेय) ही हैं अतः उपमा देकर ( उपमा प्रमाणसे ) वेदवाक्योंको अपौरुषेय सिद्ध करना अशक्य है। अर्थापत्तिसे भी अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं होता, अपौरुषेयत्वके बिना सिद्ध न हो ऐसा कोई शब्द संबंधी पदार्थ ही नहीं है जिससे कि अर्थापत्तिका अन्यथानुपपद्यमानत्व सिद्ध होवे । मीमांसक अन्यथानुपपद्यमानत्व किसको बनायेंगे ? अप्रामाण्यके अभावको, अतीन्द्रियार्थ प्रतिपादन स्वभावको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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