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________________ वेदापौरुषेयत्ववादः ४४३ परार्थशब्दोच्चारणान्यथानुपपत्तोनित्यो वेदः; इत्यप्यसमीचीनम्; धूमादिवत्सादृश्यादप्यर्थप्रतिपत्तेः प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । किंच, अपौरुषेयत्वं प्रसज्यप्रतिषेधरूपं वेदस्याभ्युपगम्यते, पर्युदासस्वभाव वा ? प्रथमपक्षे तत्कि सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम्, उताऽभावप्रमाणपरिच्छेद्यम् ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकस्यापौरुषेयग्राहकत्वप्रतिषेधात् । तद्ग्राह्यस्य तुच्छस्वभावाभावरूपत्वानुपपत्तश्च । प्रति मानत्व अपौरुषेयत्वके साथ होता हुआ दिखायी नहीं देता, सिर्फ वेद ही अतीन्द्रिय अर्थका प्रतिपादक हो सो बात नहीं है अन्य आगम भी उसके प्रतिपादक होते हैं। - परार्थ शब्दोच्चारण की अन्यथानुपपत्ति होनेसे वेद नित्य ( अपौरुषेय ) है, अर्थात् वेद नित्य नहीं होता तो शिष्यादिके लिये शब्दोंका उच्चारण किस प्रकार समझमें आता कि यह वही शब्द है जो गुरु मुखसे सुना था, इत्यादि रूपसे वेद वाक्योंको नित्य सिद्ध करके अपौरुषेय बतलाना भी ठीक नहीं, शब्द तो धूमके समान सदृशताके कारण अर्थ बोध कराने में निमित्त है, इस विषयका आगे प्रतिपादन करने वाले हैं। भावार्थ-पहले किसीके मुखसे "यह घट है" ऐसा शब्द सुना फिर कहीं पर घट देखकर दूसरेको बतलाया कि देखो ! यह घट है सो ऐसा शब्दोच्चारण तब हो सकता है जब वे शब्द नित्य हों, अन्यथा नष्ट हुये उन शब्दोंका उच्चारण तथा अन्य पुरुषोंको उनका सुनना कैसे हो सकता है एवं अर्थबोध भी कैसे हो सकता है ? क्योंकि वे शब्द तो खतम हो गये ? इसप्रकार मीमांसकने शब्दोच्चारणकी अन्यथानुपपत्ति जोड़कर वेदको नित्य एवं अपौरुषेय सिद्ध करना चाहा तब जैनाचार्य जबाब देते हैं कि यह शब्दोच्चारणकी अन्यथानुपपत्ति तो सदृशताके कारण हुआ करती है, पहले शब्द सुना फिर कभी उसका प्रतिपादन किया इत्यादि सो वही शब्द पुनः पुनः प्रयोगमें नहीं आते किन्तु उनके सदृश अन्य अन्य ही उत्पन्न हुअा करते हैं जैसे रसोई घरमें धूमको देखा वह अन्य है और पुनः कभी पर्वतपर देखा वह अन्य है उस सदृश धुमसे भी अग्नि का ज्ञान हो जाता है, उसीप्रकार पहले सुने हुए शब्द और पुनः किसी कालमें सुने हुए या उच्चारणमें आये हुए शब्द अन्य ही रहते हैं। उनसे अर्थ बोध भी होता रहता है, अतः शब्दोच्चारणकी अन्यथानुपपत्ति से वेदको नित्य या अपौरुषेय सिद्ध करना अशक्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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