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________________ ४२६ प्रमेयकमलमार्तण्डे अथ वेदे सविगानकर्तृ विशेष विप्रतिपत्त : कर्तृ स्मरणमऽतोऽप्रमाणम्-तत्र हि केचिद्धिरण्यगर्भम्, अपरे अष्टकादीन् कतीन्स्मरन्तीति । नन्वेवं कर्तृ विशेषे विप्रतिपत्त स्तद्विशेषस्मरणमेवाप्रमाणं स्यात् न कर्तृ मात्रस्मरणम्, अन्यथा कादम्बर्यादीनामपि कर्तृ विशेषे विप्रतिपत्तेः कर्तृ मात्रस्मरणत्वेनास्मर्यमाणकर्तृ कत्वस्य भावात्पुनरप्यनेकान्तः। अथ वेदे कर्तृ विशेषे विप्रतिपत्तिवत्कर्तृमात्रेपि विप्रतिपत्तेस्तत्स्मरणमप्यप्रमाणम्, कादम्बर्यादीनां तु कर्तृ विशेषे एव विप्रतिपत्त स्तत्प्रमाणमित्यनै कान्तिकत्वाभावोऽस्मर्य माणकर्तृकत्वस्य विपक्षे प्रवृत्त्यभावात् । ननु वेदे सौगतादयः कर्तारं स्मरन्ति न __ जैन ऐसा नहीं है, परवादीकी मान्यता अप्रमाण हुआ करती है, यदि उनका सिद्धांत स्वीकार करते तो उन्होंने वेदमें कर्त्ता माना उसको भी स्वीकार करना होगा। फिर उसका अस्मर्यमाणकर्तृत्व हेतु असिद्ध हेत्वाभास ही कहलायेगा। मीमांसक- वेदमें कर्ताके विषयमें परवादी विवाद करते हैं अर्थात् कर्ताको स्वीकार करके भी निश्चित कर्ता विशेष तो उनके यहां भी सिद्ध नहीं होता, अतः बौद्ध आदिका वेद कर्तुविषयक स्मरण ज्ञान अप्रमाणभूत है, उन परवादियोंमें कोई तो ब्रह्माको वेदकर्ता बतलाते हैं और कोई अष्टक नामा दैत्यको वेदकर्ता बतलाते हैं । जैन - इसतरह का विशेषमें विवाद होनेसे उस कर्ता विशेषका स्मरण ज्ञान ही अप्रमाणभूत कहा जा सकता है किन्तु कर्ता सामान्यका स्मरण ज्ञान तो प्रमाण भूत ही कहलायेगा, यदि कर्ता विशेष में विवाद होने मात्रसे वेदको अपौरुषेय मानकर अस्मर्यमाण कर्तृत्व हेतु द्वारा उसे सिद्ध किया जाय तो कादंबरी आदि ग्रथोंके कर्ता विशेषमें भी विवाद देखा जाता है कि इस कादंबरी आदि नथका कर्त्ता बाण नामा कवि है अथवा शंकर है ? इत्यादि सो यहां कर्ता सामान्यका स्मरण होते हुए भी कर्ता विशेषका तो अस्मरण ही रहता है अतः अस्मर्यमाण कर्तृत्व होनेसे वेद अपौरुषेय है ऐसा कहना गलत ठहरता है, क्योंकि अस्मर्यमाण कर्तृत्व नामा हेतु पौरुषेय प्रागममें भी पाया जाता है अतः अनैकांतिक हेत्वाभास बनता है । शंका - वेदमें कर्ता विशेषके समान कर्ता सामान्यमें भी विवाद है अतः वेद कर्ताका स्मरण अप्रमाणभूत है किन्तु कादंबरी आदि ग्रंथोंमें ऐसी बात नहीं है, वहां तो सिर्फ कर्ता विशेष में ही विवाद है अतः वहां कर्ताका स्मरण प्रमाणभूत माना जाता है इसप्रकार अस्मर्यमाण कर्तृत्व हैतु अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं बनता, क्योंकि यह विपक्षमें नहीं जाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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