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________________ वेदापौरुषेयत्ववादः ४२५ एतेन 'छिन्नमूलं वेदे कर्तृ स्मरणं तस्य ह्यनुभवो मूलम् । न चासो तत्र तद्विषयत्वेन विद्यते' इत्यपि प्रत्युक्तम् । यतोऽध्यक्षेण तदनुभवाभावात् तत्र तच्छिन्नमूलम्, प्रमाणान्तरेण वा ? अध्यक्षेण चेत्; किं भवत्सम्बन्धिना, सर्वसम्बन्धिना वा ? यदि भवत्सम्बन्धिना; तागमान्तरेपि कर्तृ ग्राहकत्वेन भवत्प्रत्यक्षस्याप्रवृत्त स्तत्कर्तृ स्मरणस्य छिन्नमूलत्वेनास्मर्यमाणकर्तृ कत्वस्य भावाद् व्यभिचारी हेतुः । अथागमान्तरे कर्तृ ग्राहकत्वेनास्मत्प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तावपि परैः कर्तृ सद्भावाभ्युपगमात् ततो व्यावृत्तमस्मर्यमाणकर्तृकत्वमपौरुषेयत्वेनैव व्याप्यते इति अव्यभिचारः; न; परकीयाभ्युपगमस्याप्रमाणत्वात्, अन्यथा वेदेपि परैः कर्तृ सद्भावाभ्युपगमतोऽस्मर्यमारणकर्तृ कत्वादित्य सिद्धो हेतुः स्यात् । मीमांसक का कहना है कि वेदके विषयमें कर्ताका स्मरण छिन्नमूल हो गया है, स्मरण ज्ञानका कारण अनुभव है वह वेदके विषयमें नहीं रहा हैं ? इत्यादि सो यह कथन भी खंडित होता है, आगे इसीको बताते हैं - प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा वेदक का अनुभव नहीं होनेसे उसको छिन्नमूल मानते हैं अथवा अनुमानादि प्रमाण द्वारा अनुभव नहीं होनेसे छिन्नमूल मानते हैं ? प्रथम पक्ष कहो तो वह प्रत्यक्ष प्रमाण किसका है आप स्वयंको होने वाला प्रत्यक्ष या सर्वसम्बन्धी प्रत्यक्ष ? आपके प्रत्यक्ष द्वारा वेदकर्ताका अनुभव नहीं पाता इसलिये उसको छिन्नमूल कहो तो अन्य बौद्ध आदिके आगमकर्ताका भी आपको अनुभव नहीं है अतः वह आगम भी छिन्नमूल होनेसे अस्मर्यमाण कर्तृत्वरूप सिद्ध होता है और इस तरह अस्मर्यमाण कर्तृत्व हेतु व्यभिचारी बनता है । भावार्थ-वेदका कर्त्ता स्मरणमें नहीं पाता अतः वेद अपौरुषेय है ऐसा मीमांसकका कहना है किन्तु यह हेतु सदोष है, क्योंकि ऐसे बहुतसे पद वाक्य एवं शास्त्र हैं कि जिनके कर्ताका स्मरण नहीं है, अपनेको स्मरण नहीं होने मात्रसे वह वस्तु अकृतक नहीं कहलाती । स्मरणका मूल अनुभव है और अनुभव प्रत्यक्ष आदि प्रमाणसे होता है, हमको वेदक का अनुभव प्रत्यक्षसे नहीं होनेके कारण उस वेदको अस्मर्यमाण कर्तृत्वरूप मानते हैं तो बौद्धादिके ग्रथको भी अस्मर्यमाण कर्तृत्वरूप मानना होगा ? क्योंकि उस ग्रन्थका भी हमको प्रत्यक्षसे अनुभव नहीं है । मीमांसक - बौद्ध प्रादिके ग्रागमका कर्ता हमारे प्रत्यक्ष भले ही न हो किन्तु वे परवादी तो कर्त्ताका सद्भाव स्वीकार करते ही हैं अतः उनका आगम अस्मर्यमाण कर्तृत्व नहीं होनेसे अपौरुषेय सिद्ध नहीं होता, इसतरह उस आगमसे व्यावृत्त हुआ अस्मर्यमाणकर्तृत्व हेतु वेदमें अपौरुषेयत्वको सिद्ध कर देता है । अतः यह हेतु अव्यभिचारी है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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