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________________ ४२४ प्रमेयकमलमार्तण्डे चैव श्र तिरन्या विधीयते' [ ] इति चाभिधानात् । “यो वेदांश्च प्रहिणोति' [ ] इत्यादिवेदवाक्येभ्यश्च तत्कर्ता स्मर्यते।। __ स्मृतिपुराणादिवच्च ऋषिनामाङ्किताः काण्वमाध्यन्दिनतैत्तिरीयादयः शाखाभेदाः कथमस्मर्यमाणकर्तृकाः ? तथाहि-एतास्तत्कृतकत्वात्तन्नामभिरविताः, तदृष्टत्वात्, तत्प्रकाशितत्वाद्वा ? प्रथमपक्षे कथमासामपौरुषेयत्वमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वा ? उत्तरपक्षद्वयेपि यदि तावदुत्सन्ना शाखा कण्वादिना दृष्टा प्रकाशिता वा तदा कथं सम्प्रदायाऽविच्छेदोऽतीन्द्रियार्थदर्शिनः प्रतिक्षेपश्च स्यात् ? अथानवच्छिन्नैव सा सम्प्रदायेन दृष्टा प्रकाशिता वा; तहि यावद्भिरूपाध्यायैः सा दृष्टा प्रकाशिता वा तावतां नामभिस्तस्याः किन्नाङ्कितत्वं स्याद्विशेषाभावात् ? प्रतिमन्वन्तर कहते हैं) प्रमाण वर्ष व्यतीत होनेपर अन्य अन्य श्रतियोंका निर्माण होता है, इत्यादि तथा जो वेदोंका कर्ता है वह प्रसन्न हो इत्यादि वेद वाक्योंसे वेदक का स्मरण है ऐसा निश्चित होता है ।। जिस प्रकार स्मृतिग्रथ, पुराणग्रंथ आदिमें ऋषियों के नाम पाये जाते हैं उसीप्रकार कण्वऋषि निर्मित काण्व, मध्यंदिनका माध्यंदिन तैत्तिरीय इत्यादि शाखा भेद वेदोंमें पाये जाते हैं फिर उन वेदोंको अस्मर्यमाण कर्तृत्वरूप कैसे मान सकते हैं, वेद इन ऋषियों के नामोंसे अंकित क्यों हैं ? उनके द्वारा किया गया है या देखा गया है अथवा प्रकाशित हैं ? यदि उनके द्वारा किया गया है तो वह अपौरुषेय किस प्रकार कहलायेगा और अस्मर्यमाण भी किस प्रकार कहलायेगा ? अर्थात् नहीं कहला सकता। उनके द्वारा वेद देखा गया है अथवा प्रकाशित किया गया है ऐसा माने तो प्रश्न होता है कि व्युच्छिन्न हुई वेद शाखाओं को देखा या प्रकाशित किया अथवा अव्युच्छिन्न वेद शाखाओंको देखा या प्रकाशित किया ? प्रथम विकल्प माने तो वेदके संप्रदायका अविच्छेद किस प्रकार सिद्ध होगा ? तथा अतीन्द्रिय पदार्थके ज्ञाताका खंडन भी किस प्रकार सिद्ध होगा? अर्थात् नहीं हो सकता, क्योंकि कण्व आदि ऋषियोंने व्युच्छिन्न हुए वेद शाखामोंका देखा है ! द्वितीय विकल्प माने तो संप्रदाय परंपरासे जितने भी उपाध्यायों द्वारा वेद शाखायें देखी या प्रकाशित की गयी हैं उन सबके नाम वेदोंमें क्यों नहीं अंकित हुए ? प्राशय यह है कि जब वेद शाखा अनवच्छिन्न संप्रदायसे चली आयी है तब उस संप्रदायको अनच्छिन्न बनाये रखने वाले सभी महानुभावोंके नाम वेदमें अंकित होने चाहिए किन्हीं के नाम हो और किन्हीं के न हो ऐसा होने में कोई विशेष कारण तो है नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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