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________________ वेदोपौरुषेयत्ववादः ४२३ खरविषाणवत् । अथाऽकर्तृकत्वमेवात्र विवक्षितम्; तर्हि स्मर्यमाणग्रहणं व्यर्थम्, जोर्णकूपप्रासादादिभिर्व्यभिचारश्च । अथ सम्प्रदायाऽविच्छेदे सत्यऽस्मर्यमाणकर्तृ कत्वं हेतुः; तथाप्यनेकान्तः। सन्ति हि प्रयोजनाभावादस्मर्यमाणकर्तृ काणि 'वटे वटे वैश्रवणः' [ ] इत्याद्यनेकपदवाक्यान्यविच्छिन्नसम्प्रदायानि । न च तेषामपौरुषेयत्वं भवतापीष्यते । प्रसिद्धश्चायं हेतुः; पौराणिका हि ब्रह्मकर्तृकत्वं स्मरन्ति "वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः" [ ] इति । "प्रतिमन्वन्तरं स्मरण या अस्मरण कुछ भी नहीं होता। यदि कहा जाय कि वेदको अपौरुषेय सिद्ध करने में अकर्तृत्वको ही हेतु बनाया है तो फिर उसका अस्मर्यमाणत्व विशेषण व्यर्थ ठहरेगा ? तथा पुराने कूप महल आदिके साथ हेतु व्यभिचरित होता है, क्योंकि ये पदार्थ कर्ता द्वारा रचित होते हुए भी अस्मर्यमाण कर्तृत्वरूप हैं ( कर्ताके स्मरणसे रहित हैं ) यदि कहा जाय कि जिसमें संप्रदायके विच्छेदसे रहित अस्मर्यमाणकर्तृत्व है उसको हेतु बनाते हैं तो यह हेतु भी अनेकान्तिक दोष युक्त है । भावार्थ-जिस वस्तुमें शुरूसे अभी तक परंपरासे कर्ताका स्मरण न हो उसे अस्मर्यमाण कर्तृत्व कहते हैं, वेद इसी प्रकारका है उसके कर्ताका परंपरासे अभी तक किसीको भी स्मरण नहीं है अतः इस अस्मर्यमाण कर्तृत्व हेतु द्वारा अपौरुषेयत्वसाध्यको सिद्ध किया जाता है, जीर्ण कुप आदि पदार्थ भी अस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप है किन्तु संप्रदाय अविच्छेद रूप अस्मर्यमाण कर्तृत्व नहीं है क्योंकि जीर्णकूपादिका कर्ता वर्तमान कालमें भले ही अस्मर्यमाण हो किन्तु पहले अतीतकालमें तो स्मर्यमाण ही था, अतः जीर्णकप आदिका अस्मर्यमाणकर्तृत्व विभिन्न जातिका है ऐसा परवादी मीमांसकादिका कहना है सो यह कथन भी अनेकान्त दोष युक्त है, इसीको आगे बता रहे हैं । वट वट में वैश्रवण रहता है, पर्वत पर्वत पर ईश्वर वसता है, इत्यादि पद एवं वाक्य प्रयोजन नहीं होनेसे अविच्छिन्न सम्प्रदायसे अस्मर्यमाण कर्तारूप हैं किंतु उन पद एवं वाक्योंको आप भी अपौरुषेय नहीं मानते हैं, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो अस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप है वह अपौरुषेय होता है ऐसा कहना व्यभिचरित होता है । यह अस्मर्यमाण कर्तृत्व हेतु असिद्ध भी है, अब इसी दोषका विवरण करते हैं-आपके यहां पौराणिक लोग ब्रह्माको वेदका कर्ता मानते हैं, “वक्त्रेभ्योवेदास्तस्य विस्तृताः" उस ब्रह्माजीके मुखसे वेद शास्त्र निकला है ऐसा आगमवाक्य है। प्रतिमन्वन्तर (एक मनुके बाद दूसरे मनुको उत्पत्ति होने में जो बीचमें काल होता है उस अंतरालको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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