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________________ ३६४ प्रमेयकमल मार्त्तण्डे भाव्यतीतयोर्मरणजाग्रद्बोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वम् ||६२ || तद्व्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ||६३ || न च पूर्वमेवोत्पन्नमरिष्टं करतलरेखादिकं वा भाविनो मरणस्य राज्यादेर्व्यापारमपेक्षते, स्वयमुत्पन्नस्यापरापेक्षायोगात् । अथास्योत्पत्तिर्मरणादिनैव क्रियते; न; प्रसतः खरविषाणवत्कर्तृ त्वायोगात् । कार्यकालेऽसत्त्वेपि स्वकाले सत्त्वाददोषश्चेत्; ननु किं भाविनो मरणादेः स्वकाले पूर्वं सत्त्वम्, शंका - स्वसत्ताका समवाय होने के पहले मरणादिक असद्भूत होते हुए भी अरिष्ट आदि कार्यको करते हुए देखे गये हैं अर्थात् मरण भावीकालमें स्थित है और उसका अरिष्टरूप कार्य पहले होता है अतः कारण हेतु पहले ही होता है ऐसा कारण हेतुका लक्षण व्यभिचरित होता है ? समाधान — इसी आशंकाका अग्रिम सूत्र द्वारा निरसन करते हैं - - भाव्यतीतयोर्मरण जाग्रद् बोधयोरपि नारिष्टो द्बोधौ प्रतिहेतुत्वम् ||६२॥ तद् व्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।।६३ ॥ सूत्रार्थ- -भावी मरणका अरिष्टके प्रति हेतुपना नहीं है, तथा प्रतीत जाग्रद् बोधका ( निद्रा लेने के पहलेका जाग्रत अवस्थाके ज्ञानका ) उद्बोधके ( निद्रा के अनन्तर होने वाले ज्ञानके ) प्रति हेतुपना नहीं है, अर्थात् भावीकालमें होनेवाला मरण वर्तमान के अरिष्टका कारण नहीं हो सकता एवं प्रतीतकालका जाग्रद ज्ञान आगामी अनेक समयोंके अंतराल में होनेवाले उद्बोधका ( सुप्तदशा के अनन्तरका ज्ञान ) कारण नहीं हो सकता, क्योंकि कारणभावका होना कारणके व्यापारके आश्रित है पहले से ही उत्पन्न हुए अरिष्ट प्रादि अथवा हस्तरेखादिक आगामी कालके मरण या राज्यप्राप्ति आदिके व्यापार की अपेक्षा नहीं रखते हैं, क्योंकि "जो स्वयं उत्पन्न हो चुका है उसको अन्यकी अपेक्षा नहीं होती" ऐसा न्याय है । बौद्ध - श्ररिष्टादिकी उत्पत्ति भावी मरणादि द्वारा ही की जाती है ? जैन - नहीं, खर विषाणके समान जो ग्रसत् है उसमें कार्यके कर्तृत्वका प्रयोग है । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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