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________________ श्रविनाभावादीनां लक्षणानि ३६३ तदा भरण्युदयादिवाऽतोपि पश्चादसौ स्यात् । यथा च शकटोदयात्प्राक्तथैव भरण्युदयादपि । यदि चातीतानागतयोरेकत्र कार्ये व्यापारः; तर्ह्यस्वाद्यमानरसस्यातीतो रसो भावि च रूपं हेतुः स्यात् । ततो न वर्त्तमानस्य रूपस्य वातोतस्य वा प्रतीतिः । इत्ययुक्तमुक्तम् - " प्रतीक कालानां गतिर्नाऽनागतानाम्” [प्रमाणवा० स्ववृ० १ १३ ] इति । श्रथान्यतरकार्य मसौ; तर्ह्य ऽन्यतरस्यैवातः प्रतीतिर्भवेत् । ननु स्वसत्तासमवायात्पूर्वमसन्तोपि मरणादयोऽरिष्टादिकार्यकारिणो दृष्टास्ततोऽनेकान्तो तोरित्याशङ्कय भाव्यतीतयोरित्यादिना प्रतिविधत्ते भावार्थ - बौद्ध पूर्वचर उत्तरचर आदि हेतुको नहीं मानते अतः प्रश्न होता है कि कृतिकोदय आदिरूप पूर्वचर यादि हेतुस्रोंका अंतर्भाव किस हेतुमें किया जाय ? उनके यहां तीन हेतु माने हैं - कार्य हेतु, स्वभाव हेतु और अनुपलब्धि हेतु । तादात्म्य संबंधवाले पदार्थ में स्वभाव हेतु प्रवृत्त होता है एवं अनुपलब्धि हेतु प्रभावरूप होता है अतः इनमें पूर्वचरादि हेतु अंतर्भूत नहीं हो सकते, कार्य हेतुमें अंतर्भाव करना चाहे तो वह भी असंभव है क्योंकि कृतिका नक्षत्रका उदय भरणी और रोहिणी के अंतराल काल में होता है अर्थात् भरणी उदयके अनन्तर और रोहिणी के पहले होता है अतः यह भरणी उदयका तो उत्तरचर हेतु है, अर्थात् कृतिकाका उदय हुआ देखकर भरणी उदयका निश्चय हो जाता है । तथा कृतिकोदयके एक मुहूर्त्त पश्चात् रोहिणीका उदय होता है अतः उसके लिये यह कृतिकोदय पूर्वचर हेतु होता है, इसप्रकार कृतिकोदय भरणी उदय दिसे काल व्यवधानको लिए हुए है, जिनमें कालका व्यवधान पड़ता है उन पदार्थों में कार्य कारणभाव नहीं माना जाता । फिर भी बौद्धकी मान्यता है कि कृतिकोदय हेतुका कार्य हेतुमें ही अंतर्भाव करना चाहिए, इस मान्यता पर विचार करते हैं - कृतिकोदय एक कार्य है ऐसा मानकर उसमें प्रतीत भरणी उदय और अनागत रोहिणी उदय कारण पड़ते हैं ऐसा स्वीकार करते हैं तो पहली बाधा तो यह आती है कि जिसका कारण अभी प्रागे होनेवाला है उसकी प्रतीति नहीं हो सकेगी क्योंकि कारण ही नहीं तो उसका कार्य किसप्रकार दृष्टिगोचर होवे ? दूसरी बाधा यह होगी कि स्वयं बौद्ध ग्रंथ में लिखा है कि- " प्रतीतैक कालानां गतिर्नागतानाम्" अतीत और वर्त्तमानवर्त्ती रूपादि साध्य की ही कार्य हेतु द्वारा अवगति (ज्ञान) होती है, अनागत साध्यकी नहीं । श्रतः कृतिकोदयरूप पूर्वचर आदि हेतुत्रोंका कार्यहेतुमें अंतर्भाव करना कथमपि सिद्ध नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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