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________________ अविनाभावादीनां लक्षणानि ३६५ अरिष्टादेर्वा । भाविनः पूर्वं सत्त्वे ततः पश्चादरिष्टादिकमुपजायमानं पाश्चात्यं न पूर्वम् । इत्ययुक्तमुक्तम्- 'पूर्वमसन्तोपि मरणादयोऽरिष्टादिकार्यकारिणः' इति । अथान्यभाविमरणाद्यपेक्षयारिष्टादिकं पूर्वमुच्यते ननु तदपि सत् स्वकाले यदि ततः प्रागेव स्यात् तर्हि पाश्चात्यमरिष्टादिकं कथं ततः पूर्वमुच्यते ? अन्यभाविमरणाद्यपेक्षया चेदनवस्था | अथ पूर्वमरिष्टादिकं स्वकाले पश्चाद्भाविमरणादिकं स्वकालनियतं भवेत् तर्हि निष्पन्नस्य निराकाङ्क्षस्यास्य पश्चादुपजायमानेन मरणादिना कथं करणं कृतस्य कररणायोगात् ? अन्यथा न बौद्ध-- कार्य के कालमें भले असत्व हो किन्तु स्वकाल में सत्त्व होने से कोई दोष नहीं आता, अर्थात् मरणादिका भावीकालमें सत्त्व होता ही है अत: वह अरिष्टादि का कारण हो सकता है ? जैन - स्वकाल में होनेवाले भावी मरणादिका पहले सत्व था या अरिष्टादिका पहले सत्त्व था ? भावी मरणका पहले सत्त्व था पीछे उससे अरिष्टादि उत्पन्न हुए ऐसा कहो तो अरिष्टादिको पाश्चात्यपना ठहरा न कि पूर्वपना ? इस तरह तो पूर्वोक्त कथन प्रयुक्तसिद्ध होता है कि " पूर्व में असत् होकर भी मरणादिक अरिष्टादिको करते हैं" । बौद्ध – अन्यके भावी मरणादिकी अपेक्षासे अरिष्टको पहले हुआ ऐसा कहा जाता है । - जैन - वह अन्यका भावी मरण भी स्वकाल में पहले सत्त्वरूप था तो अरिष्टादिको पाश्चात्यपना ही ठहरता है, फिर उसको मरणके पहले हुआ ऐसा किस प्रकार कह सकते हैं ? ग्रन्यके भावी मरणकी अपेक्षासे कहो तो अनवस्थादोष स्पष्ट दिखायी देता है । स्वकालमें होनेवाले अरिष्टादिका पहले सत्त्व या भावी मरणादिक तो पीछे स्वकालमें होते हैं ऐसा दूसरा विकल्प स्वीकार करे तो जो निष्पन्न हो चुका है एवं किसी की पेक्षा नहीं करता है ऐसे इस अरिष्टको पश्चात् उत्पन्न होनेवाले मरणादिके द्वारा किस प्रकार किया जाय ? किये हुएको तो किया नहीं जाता, अन्यथा किसीभी कार्य में किसी भी कारणका कभी भी उपरम नहीं होगा अर्थात् कारण हमेशा उस एक कार्यको करता ही जायगा, क्योंकि पुनः पुनः उसी उसीको करना मान लिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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