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________________ अविनाभावादीनां लक्षणानि तत्प्रतिपादक ज्ञानलक्षणानुमान ( नं) हेतुः कारणं यस्य तद्वचनस्य तस्य वा प्रतिपाद्यज्ञानलक्षणानुमानस्य हेतुः कारणम्, तद्भावस्तद्ध ेतुत्वम्, तस्मादिति । मुख्यरूपतया तु ज्ञानमेव प्रमाणं परनिरपेक्षतयाऽर्थ प्रकाशकत्वादिति प्राक्प्रतिपादितम् । यथा चानुमानं द्विप्रकारं तथा हेतुरपि द्विप्रकारो भवतीति दर्शनार्थं स हेतुर्द्वधेत्याहस हेतु धा उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् इति ॥ ५७ ॥ कारण है उसे " तद्ध ेतुत्व" कहते हैं यह " तद् वचनं" और " तद्धेतुत्वात् " शब्दकी निरुक्ति है । इसका अर्थ यह है कि जिस पुरुषको धूम और अग्निरूप साध्य साधनका ज्ञान है वह कहीं पर्वतादिमें धूमको देखकर समीपस्थ पुरुषको कहता है कि "यहां पर विश्य है क्योंकि धूम दिखायी दे रहा है" इस साध्यसाधनके वचनको सुनकर उसके निमित्तसे उक्त पुरुषको जो साध्यसाधनका ज्ञान होता है वह वास्तविक परार्थानुमान है और उक्त ज्ञाता पुरुषके जो साध्यसाधनके वचन मात्र है वह औपचारिक परार्थानुमान है । परकी अपेक्षा बिना किये जो पदार्थोंको प्रकाशित करता है ऐसा ज्ञान ही मुख्यरूपसे प्रमाण है इसप्रकार पहले प्रतिपादन कर चुके हैं ( प्रथम भाग कारकसाकल्यवाद सन्निकर्षवाद प्रादि प्रकरणों में ) अतः वचनात्मक अनुमान उपचार मात्र से परार्थानुमान कहला सकता है वास्तविकरूपसे नहीं ऐसा निश्चय हुआ । भावार्थ - नैयायिक आदि परवादी साध्यसाधनको कहने वाले वचनको हो परार्थानुमान मानते हैं, उनके यहां सर्वत्र ज्ञानके कारणको ही प्रमाण माना जाता है जैसे इन्द्रिय और पदार्थका सन्निकर्ष अर्थात् योग्य समीप स्थान में होना ज्ञानका कारण है सो इस सन्निकर्षको प्रमाण माना किन्तु पदार्थोंको जाननेकी सामर्थ्य तो ज्ञानमें है अतः ज्ञान ही प्रमाण है, बाध्यसन्निकर्षादि तो व्यभिचारी कारण है अर्थात् इससे ज्ञान हो नहीं भी हो, तथा दिव्य ज्ञानीके तो इन कारणोंके बिना ही ज्ञान उत्पन्न होता है अतः प्रमाण तो ज्ञान ही है, वचनको प्रमाण मानना, सन्निकर्षको प्रमाण मानना यह सब मान्यता सदोष है, इसका विवेचन प्रथम भाग में भली भांति हुप्रा है । इसप्रकार यह निश्चित हो जाता है, साध्यसाधनके वचन परार्थानुमानका निमित्त होनेसे उपचारसे उसे परार्थानुमान कह देते हैं, वह कोई वस्तुभूत अनुमान प्रमाण नहीं है । स्तु | अनुमानके समान हेतु भी दो प्रकारका होता है ऐसा कहते हैंस हेतु द्वेधा उपलब्ध्यनुपलब्धि भेदात् ।। ५७|| - Jain Education International ३८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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