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- प्रमेयकमलमार्तण्डे योऽविनाभावलक्षणलक्षितो हेतुः प्राक्प्रतिपादितः स द्वधा भवति उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ।
तत्रोपलब्धिविधिसाधिकवानुपलब्धिश्च प्रतिषेधसाधिकैवेत्यनयोविषयनियममुपलब्धिरित्यादिना विघटय ति
उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ।। ५८।। अविनाभाव निमित्तो हि साध्यसाधवयोर्गम्यगमकभावः। यथा चोपलब्धेविधौ साध्येऽविनाभावाद्गमकत्वं तथा प्रतिषेधेपि । अनुपलब्धेश्च यथा प्रतिषेधे ततो गमकत्वं तथा विधावपीत्यग्रे स्वयमेवाचार्यो वक्ष्यति ।
सा चोपलब्धिद्विप्रकारा भवत्यविरुद्धोपलब्धिविरुद्धोपलब्धिश्चेतिअविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ।।५९।।
सूत्रार्थ-उपलब्धि हेतु और अनुपलब्धि हेतु इसतरह हेतुके दो भेद हैं । साध्यके साथ जिसका अविनाभाव है वह हेतु कहलाता है ऐसा पहले कहा है, उसके उपलब्धि हेतु और अनुपलब्धि हेतु इसतरह दो भेद हैं। उपलब्धि हेतु केवल विधिसाधक ही है और अनुपलब्धि हेतु केवल प्रतिषेध साधक ही है ऐसा इन हेतुनोंके विषयका नियम करनेवालेका मंतव्य विघटित करते हैं
उपलब्धिविधि प्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ।।५८।। सूत्रार्थ - उपलब्धि हेतु भी विधि तथा प्रतिषेध ( अस्तित्व नास्तित्व या सद्भाव अभाव ) का साधक है और अनुपलब्धि हेतु भी विधि तथा प्रतिषेधका साधक है । साध्य-साधनमें गम्य-गमकभाव अविनाभावके निमित्तसे होता है । जिसप्रकार विधिरूप साध्यमें अविनाभावके कारण उपलब्धि हेतु गमक होता है उसप्रकार प्रतिषेधरूप साध्यमें भी अविनाभावके कारण उक्त उपलब्धि हेतु उस प्रतिषेधरूप साध्यका गमक होता है । तथा जिस प्रकार प्रतिषेधरूप साध्यमें अविनाभावके निमित्तसे अनुपलब्धि हेतु गमक होता है उसप्रकार विधिरूप साध्यमें भी उसी निमित्तसे अनुपलब्धि हेतु गमक होता है। आगे स्वयं आचार्य इस विषयको कहेंगे । उपलब्धि दो प्रकारकी है अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि । अागे अविरुद्धोपलब्धिके भेद बताते हैं
अविरुद्धोपलब्धिविधौषोढा व्याप्य कार्य कारण पूर्वोत्तर सहचर भेदात् ।।५६।।
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