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________________ ३७२ प्रमेयकमल मार्तण्डे प्रमाणोभयसिद्ध तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥३०॥ अग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा ॥३१॥ प्रमाणं प्रत्यक्षादिकम्, उभयं प्रमाण विकल्पो, ताभ्यां सिद्धे पुनर्मिणि साध्यधर्मेण विशिष्टता साध्या। यथाग्निमानयं देशः, परिणामो शब्द इति । देशो हि धर्मित्वेनोपात्तोऽध्यक्षप्रमाणत एव प्रसिद्धः, शब्दस्तूभाभ्याम् । न खलु देशकालान्तरिते ध्वनी प्रत्यक्ष प्रवर्तते, श्रू यमाणमात्र एवास्य प्रवृत्तिप्रतीतेः। विकल्पस्य त्वऽनियतविषयतया तत्र प्रवृत्तिरविरुद्ध व । ननु चैवं देशस्याप्यग्बिमत्त्वे साध्ये कथं प्रत्यक्ष सिद्धता ? तत्र हि दृश्यमानभागस्याग्निमत्त्वसाधने प्रत्यक्षबाधनं साधनवैफल्यं वा, तत्र साध्योपलब्धः । अदृश्यमानभागस्य तु तत्साधने कुतस्त प्रमाणोभयसिद्ध तु साध्य धर्म विशिष्टता ।।३०।। अग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा ॥३१।। सूत्रार्थ-प्रमाण धर्मीके रहते हुए एवं उभयसिद्ध धर्मीके रहते हुए साध्यधर्म विशिष्टता साध्य होती है । जैसे—यह प्रदेश अग्नियुक्त है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध धर्मीका उदाहरण है। शब्द परिणामी है। यह उभय सिद्ध धर्मीका उदाहरण है । प्रत्यक्षादि प्रमाण है, जिसमें प्रमाण और विकल्पसे सिद्धि हो उसे उभय सिद्ध धर्मी कहते हैं। इन र्मियोंके रहते हुए साध्य धर्मसे विशिष्टता साध्य होती है। यथायह देश अग्नियुक्त है और शब्द परिणामी है ये क्रमशः प्रमाणसिद्ध और उभयसिद्ध धर्मीके उदाहरण हैं। अग्नियुक्त प्रदेश प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही सिद्ध है अत: यह धर्मी प्रमाण सिद्ध कहलाया। शब्द उभयरूपसे सिद्ध है, क्योंकि देश और कालसे अंतरित हुए शब्दमें प्रत्यक्ष प्रमाण प्रवृत्त नहीं होता केवल श्रूयमाण शब्दमें ही इसकी प्रवृत्ति होती है । अनियत विषयवाला होनेसे विकल्पकी प्रवृत्ति शब्दमें होना अविरुद्ध ही है। शंका- इसप्रकारसे शब्दको उभयसिद्ध धर्मी माने अर्थात् वर्तमानका शब्द प्रमाण सिद्ध और देश एवं कालसे अंतरित शब्द विकल्प सिद्ध माने तो अग्निमत्व साध्यमें प्रदेशरूप धर्मी प्रत्यक्ष सिद्ध कैसे हो सकता है ? क्योंकि दृश्यमान प्रदेशके भागको अग्नियुक्त सिद्ध करते हैं तो प्रत्यक्ष बाधा आयेगी या हेतु विफल ठहरेगा अर्थात् दृश्यमान प्रदेश भागमें यदि अग्नि प्रत्यक्षसे दिखायी दे रही तो उसको हेतु द्वारा सिद्ध करना व्यर्थ है क्योंकि साध्य उपलब्ध हो चुका । और यदि उक्त भागमें अग्नि प्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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