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________________ अविनाभावादीनां लक्षणानि ३७१ ननु चेन्द्रियप्रतिपन्न एवार्थे मनोविकल्पस्य प्रवृत्तिप्रतीतेः कथं तत्रेन्द्रियव्यापाराभावे विकल्पस्यापि प्रवृत्तिः; इत्यप्यपेशलम्; धर्माधर्मादौ तत्प्रवृत्त्यभावानुषङ्गात् । प्रागमसामर्थ्यप्रभवत्वेनास्यात्र प्रवृत्ती प्रकृतेप्यतस्तत्प्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात् । शंका-इन्द्रिय द्वारा ज्ञात हुए पदार्थमें ही मनके विकल्प की प्रवृत्ति होती है अतः इन्द्रिय व्यापार से रहित सर्वज्ञादिमें विकल्पका प्रादुर्भाव किसप्रकार हो सकता है ? समाधान-यह कथन ठीक नहीं, इस तरह की मान्यतासे तो धर्म अधर्म आदिमें विकल्पकी (मनोविचारका) प्रवृत्ति होना अशक्य होवेगा। शंका-धर्माधर्मादि विषयमें आगमकी सामर्थ्यसे विकल्प प्रादुर्भूत होते हैं अतः उनसे धर्मादिमें प्रवृत्ति होना शक्य ही है ? समाधान-तो फिर यही बात प्रकृत धर्मीके विषयमें है अर्थात् सर्वज्ञ आदि धर्मीमें भी आगमकी सामर्थ्यसे उत्पन्न हुअा विकल्प प्रवृत्ति करता है कोई विशेषता नहीं। विशेषार्थ-जिसमें साध्य रहता है उसे पक्ष या धर्मी कहते हैं। यह पक्ष प्रत्यक्ष सिद्ध भी होता है और पागमादि से भी सिद्ध होता है। जो पदार्थ इन्द्रियगम्य नहीं है ऐसे पुण्य, पाप, आकाश, परमाणु आदि कोई तो आगमगम्य है और कोई अनुमानगम्य । इनमें धर्मी अर्थात् पक्ष विकल्प सिद्ध रहता है जिस पक्षका आस्तित्व और नास्तित्व किसी प्रमाण से सिद्ध न हो उसे विकल्प सिद्ध कहते हैं। शंकाकारने प्रश्न किया कि इन्द्रियसे जाने हुए पदार्थ में मनोविकल्प हुया करते हैं जो पदार्थ इन्द्रिय गम्य नहीं हैं उनमें विकल्प नहीं होते, अतः सर्वज्ञादिको विकल्प सिद्ध धर्मी मानना ठीक नहीं। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचायने कहा कि जो इन्द्रिय गोचर नहीं हैं ऐसे पदार्थ प्रागम ज्ञानसे विचारमें आते हैं। सभी वादी परवादी किसी ना किसी रूपसे ऐसे पदार्थ स्वीकार करते ही हैं कि जो इन्द्रियगोचर नहीं। परमाणुको सभीने इन्द्रियके अगम्य माना है । यौग धर्म अधर्म आ मादिको अतीन्द्रिय मानते हैं, इन पदार्थों की सत्ता आगमसे स्वयं ज्ञात करके परके लिये अनुमान द्वारा समझाया जाता है। सर्वज्ञका विषय भी आगमगम्य है, उनको आगमके बलसे निश्चित करके जो परवादी उसकी सत्ता नहीं मानते उनको अनुमानसे सिद्ध करके बतलाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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