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अविनाभावादीनां लक्षणानि
३७३ प्रत्यक्षतेति ? तदप्यसमीचीनम् ; अवयविद्रव्यापेक्षया पर्वतादेः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रसिद्धताभिधानात् । अतिसूक्ष्मेक्षिकापर्यालोचने न किञ्चित्प्रत्यक्षं स्यात्, बहिरन्तर्वाऽस्मदादिप्रत्यक्षस्याशेषविशेषतोऽर्थसाक्षात्करणेऽसमर्थत्वात्, योगिप्रत्यक्षस्यैव तत्र सामर्थ्यात् ।
ननु प्रयोगकालवद्वयाप्तिकालेपि तद्विशिष्टस्य मिण एव साध्यव्यपदेशः कुतो न स्यादित्याशङ्कयाह
व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ।।३२।। न पुनस्तद्वान् ।
अन्यथा तदघटनात् ।।३३।। अनेन हेतोरन्वयासिद्ध: । न खलु यत्र यत्र कृतकत्वादिकं प्रतीयते तत्र तत्रानित्यत्वादिविशिष्टशब्दाद्यन्वयोस्ति ।
नहीं है तो वहां हेतु द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध करना प्रत्यक्ष बाधित है। यदि उक्त प्रदेशके अदृश्यमान भागमें अग्निमत्वको सिद्ध करते हैं तो उस भागको प्रत्यक्षसिद्ध धर्मी किस प्रकार कह सकते हैं ?
___समाधान - यह कथन असम्यक है, अवयवी द्रव्यकी अपेक्षासे पर्वतादिप्रदेश सांव्यवहारिक प्रत्यक्षसे प्रसिद्ध माने गये हैं। यदि अत्यंत सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करे तो कोई भी पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं कहलायेगा, क्योंकि अंतरंग या बहिरंग ( चेतनाचेतन ) पदार्थको जाननेवाला हम जैसे सामान्य व्यक्तिका प्रत्यक्ष ज्ञान ( सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाण ) पूर्ण विशेषताके साथ पदार्थका साक्षात्कार करने में असमर्थ है, ऐसा साक्षात्कार करनेमें तो योगी प्रत्यक्षज्ञान ( पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्रमाण ) ही समर्थ है ।
शंका-प्रयोगकालके समान व्याप्तिकालमें भी साध्यधर्म विशिष्ट धर्मीको ही साध्य क्यों नहीं बनाते ? समाधान – इस शंकाका समाधान अग्रिम दो सूत्रों द्वारा करते हैं -
व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ।।३२।।
अन्यथा तदघटनात् ।।३३।। सूत्रार्थ व्याप्ति करते समय धर्मको ही साध्य बनाते हैं न कि धर्मविशिष्ट धर्मीको, क्योंकि धर्मीको (पर्वतादिको) साध्य बनाने पर व्याप्ति घटित नहीं हो सकती।
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