________________
हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम्
३३७
यच्च प्रकरणसमस्यानित्यः शब्दोनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वादित्युदाहरणम्; तत्रानुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वं शब्दे तत्त्वतोऽप्रसिद्धम्, न वा ? प्रथमपक्षे पक्षवृत्तितयाऽस्याऽसिद्ध रसिद्धत्वम् । द्वितीयपक्षे तु साध्यधर्मान्विते मिणि तत्प्रसिद्धम्, तद्रहिते वा ? अाद्य विकल्पे साध्यवत्येव धर्मिण्यस्य सद्भावसिद्धिः, कथमगमकत्वम् ? न हि साध्यधर्ममन्तरेण धर्मिण्यऽभवनं विहायापरं हेतोरविनाभावित्वम् । तच्चेत्समस्ति, कथं न गमकत्वम् अविनाभावनिबन्धनत्वात्तस्य ? द्वितीयपक्षे तु विरुद्धत्वम्;
विशेषार्थ-यह देवदत्त मूर्ख है, क्योंकि उस व्यक्तिका पुत्र है, इस अनुमानका तत्पुत्रत्व हेतु सत् प्रतिपक्ष दोष युक्त है क्योंकि इस हेतुके साध्यके विरुद्ध पक्षको सिद्ध करनेवाला अन्य हेतु मौजूद है-यह देवदत्त विद्वान है, क्योंकि शास्त्रका व्याख्यान करता है, यह शास्त्रव्याख्यानत्व हेतु उक्त मूर्खत्व साध्यका निरसन करता है, इस प्रकार के सत्प्रतिपक्षत्व हेतुके कारण तत्पुत्रत्व हेतु अगमक होता है ऐसा योगका कहना है, आचार्यने कहा कि ऐसा प्रतिपक्षत्व किस कारणसे होता है ? दोनों हेतुोंमें से एकमें अतुल्य बल होनेके कारण हुया ऐसा कहना अशक्य है एकमें अतुल्यबल भी किस कारणसे हुआ यह प्रश्न खड़ा होता है एकमें पक्षधर्मत्वादि रहते हैं और दूसरे में (तत्पुत्रत्वादिमें) नहीं रहते इस कारण एकमें अतुल्यबल है ऐसा कहना ठीक नहीं क्योंकि यौगने दोनों हेतुओंमें पक्षधर्मत्वादिको स्वीकार किया है। तुल्यबल होनेसे हेतु सत् प्रतिपक्षी होता है ऐसा कहना भी असत् है जब दोनोंका समान बल है तब एक बाधक बने और दूसरा उसके द्वारा बाधित (खंडित) हो जाय ऐसा असंभव है । अतः तत्पुत्रत्वादि हेतु सत् प्रतिपक्षके कारण सदोष नहीं है अपितु अन्यथानुपपन्नत्व लक्षण नहीं होनेके कारण सदोष है।
सत् प्रतिपक्षत्व हेतुका दोष है उसके निमित्तसे प्रकरणसम नामका हेत्वाभास होता है, जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि उसमें नित्य धर्मकी अनुपलब्धि है, ऐसा यौगने प्रकरणसम हेत्वाभास का उदाहरण दिया सो उसमें प्रश्न है कि शब्दमें अनुपलभ्यमान नित्य धर्मत्वरूप हेतु वास्तविकरूपसे प्रसिद्ध है कि नहीं ? यदि है तो पक्षमें वर्तना प्रसिद्ध होनेके कारण यह हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास कहलायेगा, न कि प्रकरणसम हेत्वाभास । अनुपलभ्यमान नित्यधर्मत्व शब्दमें अप्रसिद्ध नहीं है अर्थात् प्रसिद्ध है ऐसा दूसरा पक्ष करे तो पुनः शंका होती है कि उक्त धर्मत्व साध्यधर्मान्वित धर्मी में प्रसिद्ध है या साध्यधर्म रहित धर्मीमें प्रसिद्ध है ? प्रथम कल्पनामें साध्ययुक्त धर्मी में ही उक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org