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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे साध्यधर्मरहिते धमिरिण प्रवर्त्तमानस्य विपक्षवृत्तितया विरुद्धत्वोपपत्तः। अथ सन्दिग्धसाध्यधर्मवति तत्तत्र:प्रवतं ते; तर्हि सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादस्याऽनकान्तिकत्त्वम् । ___ नन्वेवं सर्वो हेतुरनकान्तिकः स्यात्, साध्यसिद्धः प्राक्साध्यमिणः साध्यधर्मसदसत्त्वाश्रयत्वेन सन्दिग्धत्वात्, ततोऽनुमेयव्यतिरिक्त साध्यधर्मवति धर्मान्तरे साध्याभावे च प्रवर्तमानो हेतुरनकांतिकः, साध्याभाववत्येव तु पक्षधर्मत्वे सति विरुद्धः, यस्तु विपक्षाद्वयावृत्तः सपक्षे चानुगतः पक्षधर्मो निश्चितः स्वसाध्यं गमयत्येवेत्यभ्युपगन्तव्यम्; इत्यप्यसुन्दरम्; यतो यदि साध्यमिव्यतिरिक्त धर्म्यन्तरे हेतोः साधन धर्मका सद्भाव सिद्ध होनेसे उसे अगमक किस प्रकार माने ? क्योंकि धर्मी में साध्यधर्म के बिना नहीं होना यही हेतु अविनाभावित्व है इसको छोड़कर अन्य किसीको अविनाभावीपना नहीं कहते, जब वह गुण-लक्षण हेतुमें है तब वह कैसे गमक नहीं होगा गमकत्वका निमित्त तो अविनाभाव ही है ? द्वितीय कल्पना साध्य रहित धर्मीमें अनुपलभ्यमान नित्यधर्मत्व हेतु रहता है ऐसा माने तो वह हेतु विरुद्ध कहलायेगा न कि प्रकरण सम] जो हेतु साध्यधर्मरहित धर्मी में रहता है उसका विपक्ष में वर्त्तने के कारण विरुद्धपना प्रसिद्ध ही है। योग-साध्यधर्मका रहना जहां संदिग्ध है उस धर्मी में उक्त हेतु प्रवृत्ति करता है ? जैन-तो इस हेतुका विपक्षमें रहना भी संदिग्ध होनेके कारण अनेकांतिक दोष आयेगा (प्रकरण सम नहीं)। __ यौग - इस तरह मानने पर सभी हेतु अनैकान्तिक कहलायेंगे, क्योंकि साध्यः सिद्धिके पहले साध्यधर्मीमें साध्यका धर्म सत् और प्रसत् रूपसे रहना संदिग्ध ही रहता है, अतः अनुमेयसे पृथक अन्य स्थान पर साध्य धर्म युक्त धर्मीमें (घटमें) प्रवृत्ति करने वाला हेतु एवं साध्यके अभावमें प्रवृति करनेवाला हेतु ही अनेकांतिक होता है ऐसा मानना चाहिए, तथा जहां साध्यका अभाव है केवल उसमें ही पक्षधर्म रूप रहता है वह हेतु विरुद्ध होता है, किन्तु जो हेतु विपक्षसे व्यावृत्त है सपक्षमें अनुगत एवं पक्ष धर्मयुक्त है वह स्वसाध्य को अवश्य ही सिद्ध करता है ऐसा स्वीकार करना चाहिए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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