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________________ ३३२ प्रमेयकमलमार्तण्डे नित्यतासिद्धिरप्यस्त्वऽन्यतरानुपलब्धेस्तत्रापि सद्भावात् । तथा हि-नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेरात्मादिवत्, यत्पुनर्न नित्यं तन्नानुपलभ्यमानाऽनित्यधर्मकम् यथा घटादि; इत्यप्यविचारितरमणीयम्; साध्याविनाभावित्वव्यतिरेकेणापरस्याबाधित विषयत्वादेरसम्भवात् तदेव प्रधानं हेतोर्लक्षणमस्तु किं पञ्चरूपप्रकल्पनया ? न च प्रमाणप्रसिद्धत्रैरूप्यस्य हेतोविषये बाधा सम्भवति; अनयोविरोधात् । साध्यसद्भावे एव हि हेतोमि णि सद्भावस्त्ररूप्यम्, तदभावे एव च तत्र तत्सम्भवो बाधा, भावाभावयोश्चैकत्रैकस्य विरोधः । अनुपलब्ध है, जो नित्य होता है उसमें नित्य धर्म अनुपलब्ध नहीं रहता ( अर्थात उपलब्ध ही होता है ) जैसे आत्मादि पदार्थ । इस प्रकार एक किसी वादी द्वारा अन्यतर अनुपलब्धि-नित्य अनित्यमें से एक की अनुपलब्धि हेतुसे अनित्यत्व की सिद्धि में साधन उपस्थित करने पर दूसरा प्रतिवादी कहता है-यदि इस प्रकारसे अनित्यत्व सिद्ध किया जाता है तो नित्यत्वको सिद्धि भी होवे क्योंकि उसमें भी अन्यतर अनपलब्धि हेतुका सद्भाव है, यथा--शब्द नित्य है क्योंकि उसमें अनित्य धर्मकी अनुपलब्धि है, जैसे प्रात्मादिमें अनित्य धर्मकी अनुपलब्धि देखी जाती है, जो नित्य नहीं है उसका अनित्य अनुपलब्ध नहीं रहता, जैसे घटादिका अनित्य धर्म अनुपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार हेतुमें पांच रूप्य-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधित विषय और असत्प्रतिपक्षत्व होना आवश्यक है अन्यथा उपर्युक्तरीत्या वह हेतु बाधित विषयत्व आदि दोषोंका भागी हो जाता है। जैन-यह कथन अविचारित रमणीय है, साध्यविनाभावित्वके बिना अन्य अबाधित विषयत्वादि हेतुके लक्षण असंभव ही है अतः वही हेतुका प्रधान लक्षण होना चाहिये पांचरूप्य लक्षणसे क्या प्रयोजन ? दूसरी बात यह है कि हेतुका रूप्य यदि प्रमाणसे सिद्ध है तो उसके विषयमें (साध्यमें) बाधा पाना संभव नहीं क्योंकि प्रमाण प्रसिद्ध और बाधापन ये दोनों परस्पर विरुद्ध है । साध्यके सद्भावमें ही हेतुका पक्षमें होना त्रैरूप्य कहलाता है, इस प्रकारके हेतुके रहते हुए उसके विषयमें बाधा किस प्रकार संभव है ? बाधा तो तब संभव है जब हेतु साध्यके अभावमें धर्मीमें होता । भाव और अभावका एकत्र रहना विरुद्ध है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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