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________________ हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम् __किंच, प्राध्यक्षागमयोः कुतो हेतुविषयबाधकत्वम् ? स्वार्थ( ) व्यभिचारित्वाच्चेत्; हेतावपि सति त्रैरूप्ये तत्समान मित्यसावप्यनयोविषये बाधकः स्यात् । दृश्यते हि चन्द्रार्कादिस्थैर्यग्राह्यऽध्यक्ष देशान्तरप्राप्तिलिङ्गप्रभवानुमानेन बाध्यमानम् । अथैकशाखाप्रभवत्वाद्यनुमानस्य भ्रान्तत्वाबाध्यत्वम् । कुतस्तद्धान्तत्वम्-अध्यक्षबाध्यत्वात्, त्रैरूप्यवैकल्याद्वा ? प्रथमपक्षेऽन्योन्याश्रयः-भ्रान्तत्वेऽध्यक्षबाध्यत्वम्, ततश्च भ्रान्तत्वमिति । द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः; त्रैरूप्यसद्भावस्यात्र परेणाभ्युपगमात् । अनभ्युपगमे वाऽत एवास्याऽगमकत्वोपपत : किमध्यक्षबाधासाध्यम् ? भावार्थ -बौद्धाभिमत हेतुके त्रैरूप्य लक्षणको जैन द्वारा बाधित किये जाने पर यौग कहता है कि त्रैरूप्य लक्षणका निरसन तो ठीक ही हुआ क्योंकि उसमें अबाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व ये दो लक्षण समाविष्ट नहीं हुए ? आचार्य इस पांच रूप्य लक्षण का निरसन करते हुए कह रहे कि पांच रूप्य रहते हुए भी यदि साध्याविनाभावित्व नहीं हैं तो वह हेतु साध्यका गमक नहीं हो सकता, तथा त्रैरूप्य लक्षण यदि प्रमाणसे सिद्ध है अर्थात् उस त्रैरूप्यके साथ साध्याविनाभावित्व है तो वह हेतु साध्यका गमक क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा। जब हेतुका पक्षमें सद्भाव है तब उसमें पक्षधर्मत्व है ही, तथा हेतु केवल साध्य रहते हुए ही पक्ष में रहता है तो उसका अन्वय भी प्रसिद्ध है एवं साध्य सद्भावमें ही पक्षमें रहने के कारण उसका विपक्षमें असत्त्व स्वतः सिद्ध हो जाता है, इस प्रकारका प्रमाण प्रसिद्ध त्रैरूप्य अन्यथानुपपन्नरूप होनेके कारण अनिराकृत है । जिस हेतुका साध्य प्रमाणसे बाधित है उसे बाधित विषय कहते हैं जब हेतुका सारा स्वरूप प्रमाणसे सिद्ध हुया तब उसमें किस प्रकार की बाधा ? एक ही अनुमान में स्थित हेतुके बाधा संभव और बाधा अभाव [ भाव और अभाव ] मानना तो विरुद्ध है । किंच, प्रत्यक्ष और आगम प्रमाणमें जिस हेतुका विषय बाधित होता है वह बाधित विषयत्व दोष है इस दोषका निराकरण करने के लिए हेतुके लक्षणमें अबाधित विषयत्वको समाविष्ट किया जाता है ऐसा आपका [योगका कहना है सो प्रत्यक्षादिमें हेतुका विषय किस कारणसे बाधित होता है ? स्वार्थ व्यभिचारिपना होने के कारण कहो तो हेतुमें भी त्रैरूप्यके रहने पर वह बात समान घटित होगी अर्थात् प्रत्यक्ष और आगमके विषयमें हेतु द्वारा बाधा उपस्थित की जायगी, देखा भी जाता है कि चन्द्र सूर्य आदिको स्थिर रूपसे ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष प्रमाण देशांतर प्राप्तिरूप हेतु वाले अनुमान द्वारा बाधित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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