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________________ तर्कस्वरूपविचारः ३०७ इदं साधनत्वेनाभिप्रेतं वस्तु, अस्मिन्साध्यत्वेनाभिप्रेते वस्तुनि सत्येव सम्भवतीति तथोपपत्तिः । अन्यथा साध्यमन्तरेण न भवत्येवेत्यन्यथानुपपत्तिः । वाशब्द उभयप्रकारसूचकः। ___ तावेवोभयप्रकारौ सुप्रसिद्धव्यक्तिनिष्ठतया सुखावबोधार्थं प्रदर्शयति यथाग्नावेच धृमस्तदभावे न भवत्येवेति च ।।१३।। ननु चास्याऽप्रमाणत्वारिक कारणस्वरूपनिरूपणप्रयासेन; इत्यप्यसाम्प्रतम्; यतोस्याप्रामाण्यं गृहीतग्राहित्वात्, विसंवादित्वाद्वा स्यात्, प्रमाणविषयपरिशोधकत्वाद्वा ? प्रथमपक्षे साध्यसाधनयोः साकल्येन व्याप्तिः प्रत्यक्षात् प्रतीयते, अनुमानाद्वा ? न तावत्प्रत्यक्षात्; तस्य सन्निहितमात्रगोचरतया देशादिविप्रकृष्टाशेषार्थालम्बनत्वानुपपत्तः, तत्रास्य वैशद्यासम्भवाच्च । न खलु सत्त्वानित्यत्वादयोऽ सूत्रार्थ-यह इसके होने पर ही होता है और नहीं पर नहीं होता । 'इदं' इस पद से साधन रूप से अभिप्रेत वस्तु का ग्रहण होता है तथा 'अस्मिन्' इस पद से साध्य रूप से अभिप्रेत वस्तु का ग्रहण होता है, यह साधन इस साध्य के होने पर ही होता है यह तथोपपत्ति कहलाती है, साध्य के विना साधन नहीं होता, यह अन्यथानुपपत्ति कहलाती है । सूत्रोक्त वा [तु] शब्द उभय प्रकार का सूचक है । इस तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति रूप उभय प्रकार को सुप्रसिद्ध दृष्टांत द्वारा सुख पूर्वक अवबोध कराने के लिये कहते हैं--- यथाग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ।।१३।। सूत्रार्थ-जिस प्रकार धूम अग्नि के होने पर ही होता है और अग्नि के अभाव में नहीं होता। शंका-तर्क ज्ञान अप्रमाण है अतः इसके कारण और स्वरूप का प्रतिपादन करना व्यर्थ है ? समाधान -यह कथन ठीक नहीं, तर्क अप्रमाणभूत किस कारण से है गृहीत नाही होने से, विसंवादित्व होने से या प्रमाण के विषय का परिशोधक होने के कारण ? प्रथम पक्ष-गृहीत ग्राहो होने से तर्क ज्ञान अप्रामाणिक है ऐसा माने तो कौनसे प्रमाणसे उसका विषय ग्रहण हुआ है। साध्य साधन की साकल्य रूपसे व्याप्ति प्रत्यक्षसे प्रतीत होती है या अनुमानसे ? केवल सन्निहित पदार्थका ग्राहक होनेके कारण प्रत्यक्ष ज्ञान देशादिसे विप्रकृष्ट [दूरवर्ती] भूत अशेष पदार्थों का ग्राहक नहीं हो सकता तथा उन विषयों में इसका वैशद्यधर्म भी असंभव है । सत्त्व नित्यत्व आदि तथा अग्नि धूम आदि सभी पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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